भारत में जब दूसरी संस्कृतियों व समाज की तरह संयुक्त रिश्ते टूटने लगे, लोग एकल परिवार बसाने लगे, यानी पति-पत्नी और बच्चे। तब से वृद्धों को बोझ एवं अपने मकान की चार दिवारी से उनको निकाल बाहर किया जाने लगा, तब से वरिष्ठ नागरिक (60 वर्ष या उससे ऊपर उम्र) या एक दूसरी श्रेणी के वरिष्ठ नागरिक (वे लोग जिनकी अपनी कोई संतान नहीं है पर वारिस है उनकी संपत्ति के) घर से बाहर किये जाने लगे, एक छत, खाना-पीना, उचित इलाज, स्नेह, आासन का अभाव झेलने लगे, दर-दर की ठोकर खाने लगे तब लाचार होकर सरकार ने यह कानून 2007 में बनाया।

उस समय मैं अक्सर लोकसभा टीवी में ज्वलंत विषयों पर बोलने जाती थी। इस कानून के आने के बाद, 2 वृद्धाश्रमों के वरिष्ठ लोग भी मेरे साथ-साथ बहस सुनने या जानकारी लेने आए थे। मैंने जब कहा कि आप लोगों का ख्याल यदि बच्चे न रखें, घर से निकाल दें, दवा, खाने-पीने, भरण-पोषण का ख्याल न रखे तो आप इस एक्ट की धारा 24 के अनुसार उन पर केस कर उन्हें घर से बाहर कर सकते हैं।

इस पर वरिष्ठ नागरिक एकसुर में बोल पड़े, ‘क्या कहती हैं, खुद की संतान पर केस कर जेल भेजेंगे, कभी नहीं-कभी नहीं।’ मैंने कहा, ‘अभी नया-नया कानून है, इसलिए डर, प्रेम, भय सभी भाव आपको आंदोलित करते हैं पर जब ऐसा समय आया है तभी तो अपने घर-मकान छोड़, बड़े पदों पर रहकर, बच्चों की मान-प्राण से पालकर वृद्धाश्रम में पड़े हैं।’

अभी मैं पहली बार एक परिवार ट्रिब्यूनल में बतौर एक वकील उपस्थित थी। मैंने अपना मुकदमा अगस्त 2023 में फाइल किया था। पर कोई तारीख नहीं पड़ी। हारकर मैंने उच्च न्यायालय में याचिका डाली, ट्रिब्यूनल को नोटिस मिलने के बाद ट्रिब्यूनल ने एक हफ्ते बाद पहली तारीख दी। कोर्ट के बाहर नौ मुकदमे के प्रार्थी बैठे थे। सभी अत्यंत बूढ़े जिनमें ज्यादातर स्त्रियां थीं, हिंदू, मुस्लिम सभी। एक महिला का केस जब कॉल किया गया तो वह अपने वकील के गले लग रोने लगी और कहा- ‘बेटा, मेरा मकान दिला दोगे ना। मैं घर की चार दिवारी के बाहर बैठी रहती हूं।’ सुन हृदय द्रवित हो गया। मकान मां-बाप की मेहनत, खून-पसीने से बनता है। अति लाड़ प्यार से पाले गए बच्चे जवान, विवाहित होते ही अपने ही माता-पिता को कई मुकदमों में फंसाकर, झूठे कागजात बनाकर, पुलिस और सरकारी वकील या दूसरे वकील को अपनी तरफ कर मुकदमों में माता-पिता को फंसा देते हैं, उनके साथ मारपीट, गाली-गलौच, बुरा व्यवहार, उन्हें खाना-पीना न देकर, दवाएं न देकर, उन्हें फेंककर या तो उनकी जिंदगी के दिन कम कर देते हैं, अंधेरी रातों में घर से बाहर कर देते हैं या वृद्धाश्रम में धोखे से, रेलवे स्टेशनों, तीर्थ यात्राओं में छोड़ देते हैं।

हर प्रार्थी की आंखों को नम करने वाली एक कहानी होती है। ऊपर से मुझे यह ट्रिब्यूनल बनना कुछ जमा नहीं। सरकार की मंशा थी कि वरिष्ठ नागरिकों और माता-पिता को त्वरित राहत, न्याय मिले। उसके लिए ऐसे लोगों को यह भार दिया जाए जो सिर्फ यही काम करने के लिए मुक्त हो व जिसकी सम्पूर्ण निष्ठा यही हो। तब तो ठीक है पर जो अधिकारी पहले ही अधिक काम के बोझ में दबे हो तो वह बेचारा क्या त्वरित न्याय कर सकता है? उसके पास अपने शासनात्मक न्यायिक कार्य हैं और फिर यह अन्य अतिरिक्त कार्य। यहां, बड़ी मुश्किल से मजिस्ट्रेट से 8-10 महीने की पहली तारीख मिलती है। एक 76, 80, 85 वर्ष का घर के बाहर निकाला हुआ व्यक्ति जिसके जीवन में गिने हुए दिन रह गए हैं, वह कितना इंतजार कर सकता है। इन मुकदमों का निबटारा किसी उच्च न्यायालय की एक पीठ को सिर्फ यही मुकदमे सुनकर ज्यादा से  ज्यादा एक महीने में कर देना चाहिए। केंद्र सरकार इसकी व्यवस्था जल्द से जल्द करे।

यह कानून बच्चों को या वारिस को सिर्फ भरण-पोषण देने की व्यवस्था करने को ही नहीं कहता वरना उनकी जान-माल की रक्षा की गारंटी भी मांगता है। जैसे एक मां जो डायबिटिज से पीड़ित है तो यह न हो कि उसे इंसुलिन देकर 3-4 घंटे तक खाना न दिया जाए या तो पिता हार्ट का ऑपरेशन करवा चुका है, उसे दवा न दी जाए या दवाएं फेंक दी जाए। ऐसे मुकदमे में दूसरी पार्टी के न आने पर एकतरफा निबटारा किया जा सकता है (धारा-6)। ऐसे मुकदमे संक्षिप्त प्रोसिडय़ूर पर चलते हैं लंबे नहीं। इसीलिए इन्हें एक ट्रिब्यूनल को सौंपा गया है पर यहां इस एक्ट का मतलब सर्व नहीं हा रहा बल्कि कोर्ट से भी ज्यादा देर यहां हो रही है। ट्रिब्यूनल की शक्तियां सिविल कोर्ट जैसी है (धारा-8)।

ट्रिब्यूनल से आदेश हो जाने पर आदेश न मानने पर आदेश का पालन करवाया जायेगा। ट्रिब्यूनल की धारा 23 एवं 24 महत्वपूर्ण है। धारा 23 के अनुसार यदि एक्ट लागू होने के बाद (2007 के बाद) वारिस यदि संपत्ति के मालिक को सभी सुविधाएं नहीं देता है, उपेक्षा या तंग करता है तो यह समझा जाएगा कि वारिस ने यह संपत्ति फाड्र कर या अनुचित दबाव पैदा कर अपने नाम करवाई है और तब ट्रिब्यूनल इस ट्रांसफर को गैर कानूनी कर सकता है, खारिज कर सकता है। एक्ट की धारा 24 के अनुसार वरिष्ठ व्यक्ति को यदि बेघर किया जाता है तो वारिस को तीन महीने तक की सजा और पांच हजार रुपए तक जुर्माने की सजा हो सकती है।

जिन वरिष्ठ माता-पिता के पास संपित्त नहीं है वे भी यदि वृद्धावस्था में बिना छत, भरण-पोषण के हैं तो उन्हें भी बच्चे भरण-पोषण देंगे। यह भरण-पोषण जितने बच्चे हैं उन्हें उनका हिस्सा देना होगा। जो वरिष्ठ व्यक्ति बेऔलाद हैं उनका भरण-पोषण सरकार करेगी वृद्धाश्रम में जगह देकर। जो वरिष्ठ व्यक्ति खुद ट्रिब्यूनल जाकर केस नहीं कर सकता, अपने स्वास्थ्य या ‘मीन्स’ के कारण उसकी तरफ से कोई रिश्तेदार या मित्र व्यक्ति या संस्था भी ट्रिब्यूनल जा सकती है।

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं) 

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Kamlesh Jain

कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और देश में कई बड़े केस लड़ चुकी हैं। चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमो की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वो हमेशा मुखर रही हैं। कमलेश जैन नीतिरीति के लिए अपने विचार और अनुभव लिखती रही हैं।

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