सुप्रीम कोर्ट द्वारा बुधवार को बुलडोजर-कार्रवाई की सीमा तय करना एक दूरदर्शी फैसला माना जाएगा। अदालत ने साफ कर दिया है कि किसी संपत्ति को सिर्फ इसलिए नहीं तोड़ा जा सकता, क्योंकि उस संपत्ति का कथित मुखिया आरोपी है। साथ ही, उसने कई दिशा-निर्देश जारी करके ऐसे मामलों की सांविधानिक स्थिति भी साफ कर दी है। दरअसल, पिछले दिनों से कई सरकारों पर ये आरोप लग रहे थे कि ऐसी कार्रवाइयों में पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है, जिससे न्याय की बुनियादी अवधारणा भी खंडित हो रही है। हालांकि, खबर यही है कि इन कार्रवाइयों का नुकसान अल्पसंख्यकों की तुलना में बहुसंख्यक समुदाय को ज्यादा हुआ है।
बहरहाल, माना यही जाता है कि देश में कुल भूमि का करीब 20 प्रतिशत हिस्सा अतिक्रमणकारियों के कब्जे में है। दिल्ली में ही एमसीडी और डीडीए की जमीनों पर, जो फुटपाथ या अन्य उपयोग के लिए तय हैं, पक्के निर्माण करके होटल, गैराज, टैक्सी स्टैंड तक बना लिए गए हैं। इससे आम नागरिकों को होने वाली परेशानियों का बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। ऐसे अतिक्रमण दुर्घटना तक को न्योता देते हैं। इसी तरह, देश में कहीं भी थोड़ी सी खाली सरकारी जगह पर भी कोई न कोई निर्माण कर लिया गया है, नहीं कुछ तो, धार्मिक ढांचा ही खड़ा कर दिया गया है, जिसको हटाने में तंत्र के हाथ-पांव फूलने लगते हैं। वक्फ अधिनियिम के तहत तो किसी की जमीन वक्फ की संपत्ति घोषित की जा सकती है। उस पर कोई अन्य दावा नहीं किया जा सकता।
इस पृष्ठभूमि में यदि सुप्रीम कोर्ट के नए दिशा-निर्देशों को पढ़ा जाए, तो नई राह बनती दिख रही है। होता यह है कि कानून की दृष्टि से या आम लोगों की नजर से भी अवैध अतिक्रमण चुभते हैं और उस पर कार्रवाई की मांग की जाती है, लेकिन मुमकिन है कि इन पर कार्रवाई करने वाली सरकारी एजेंसियों से भी चूक हो या दस्तावेज का सावधानी से अध्ययन न करना बुलडोजर को लिवा लाए, इसलिए प्रक्रिया के पालन की बात अदालत ने कही है। अदालत का स्पष्ट मानना है कि तंत्र और आम आदमी, यहां तक कि जिसकी संपत्ति ध्वस्त की जानी हो, सभी को न्याय मिलना चाहिए। यही कारण है कि अपने दिशा-निर्देश में अदालत ने ऐसी कार्रवाई के लिए समय-सीमा तय करने, नोटिस भेजने, जवाब देने का मौका देने और समझौता योग्य होने पर जुर्माना अदा करके समझौता करने जैसे प्रावधान बताए हैं।
ऐसे मामलों का मानवीय पक्ष कहीं अधिक मजबूत है। यदि किसी आरोपी का घर ध्वस्त कर दिया जाता है, तो बिना किसी गलती के उसके परिजन भी सजा पा जाते हैं, जो हृदयविदारक दृश्य पैदा कर सकता है। हालांकि, दबंगई में किए गए अतिक्रमण पर कार्रवाई उचित जान पड़ती है। दरअसल, जिन मामलों में शक-सुबहा हो, वहां तो पूरे दस्तावेज का बारीकी से अध्ययन होना चाहिए, लेकिन जिन मामलों में पहली नजर में ही तस्वीर साफ हो जाए, उनमें जल्द से जल्द कार्रवाई सुनिश्चित करना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो एक दिन अव्यवस्था चरम पर पहुंच सकती है। वाकई, अगर किसी ने सही तरीके से जमीन खरीदा है और उसके पास हर दस्तावेज उपलब्ध है, तो उसे ध्वस्त करना तंत्र के लिए गले की फांस बन सकता है। इससे जनता में भी आक्रोश पैदा होता है, क्योंकि आदमी सब कुछ सह लेता है, पर यह नहीं सह सकता कि जिस मकान को उसने अपने खून-पसीन से सींचा है, जिसकी एक-एक ईंट जोड़ने के लिए मेहनत की है, उसे सिर्फ शक के बिना पर कोई ध्वस्त कर दे।
वास्तव में, अतिक्रमण के मामले में तंत्र कहीं अधिक कुसूरवार नजर आता है। अवैध निर्माण को रोकना उसकी जिम्मेदारी होती है, लेकिन उसके अधिकारी इसे अनदेखा करते हैं। कभी-कभी तो इसके लिए पैसों का भी लेन-देन होता है। ऐसा ही एक मामला मुझे याद है, जब दिल्ली हाईकोर्ट में अवैध अतिक्रमण का एक मामला इसलिए नहीं टिक सका, क्योंकि संबंधित विभाग के अधिकारियों ने लीपापोती कर दी। नतीजतन, उस जगह पर आज अतिक्रमण कहीं अधिक तेजी से हो रहा है।
यह पूरा प्रकरण भूमि सुधार की तरफ भी इशारा कर रहा है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हर संपत्ति-मालिक अपनी संपत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करे और उस पर उचित कर चुकाए। चूंकि अतिक्रमणकारियों की संख्या अपने देश में कम नहीं हैं, इसलिए ऐसी जमीनों से सरकारी खजाने को चूना लग रहा है। लिहाजा, संबंधित विभाग के अधिकारियों पर कार्रवाइयां होनी ही चाहिए। मगर होता यह है कि यह सब एक लंबी प्रक्रिया है और बुलडोजर चलाने का आदेश तुरंत मिल जाता है, इसलिए आसान रास्ता अपना लिया जाता है। जबकि, ऐसी कार्रवाइयों में जमीन के एक टुकड़े को छोड़कर सब कुछ ध्वस्त हो जाता है। इसीलिए, सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही इसके लिए प्राधिकरण के माध्यम से सुनवाई करने की बात कही है। अपेक्षा रहेगी कि यह फास्ट ट्रैक कोर्ट से भी अधिक तेजी से काम करेगा और अंतिम आदेश पारित करके अनधिकृत संरचना के भाग्य का फैसला कर देगा। इससे सरकरों के पास कितनी जमीन निकल सकती है और जनता के हित में कितने काम हो सकते हैं, इसका महज अंदाजा ही लगाया जा सकता है।
अपराधशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि जिसने अपराध किया है, सजा उसी को दी जाए। इस सिद्धांत की वजह से अतिक्रमणकारियों को ही जेल मिलनी चाहिए, उनके परिजनों को नहीं। हां, यदि पूरी जांच के बाद जमीन अतिक्रमित साबित हो, तो उस पर बुलडोजर चलाने से ऐतराज नहीं होना चाहिए। इसमें शायद ही न्याय के सिद्धांत की अवहेलना होगी। विशेषकर माफियाओं के मामले में यही दिखा है कि उनके पास अपने दावे से संबंधित सही कागजात नहीं थे। जब कागज दुरुस्त न हो, तो कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए। अगर ऐसे मामलों में बुलडोजर नहीं चलेगा, तो जिसने उस पर कब्जा जमा रखा है, वह अपना हक बढ़ाता चला जाएगा और निर्दोषों को तंग करता रहेगा। इससे सरकार पर भी उंगली उठेगी और देश का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है। हालांकि, यह पूरी कार्रवाई कानून और व्यवस्था के तहत ही हो, जिसको बनाए रखने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट ने उचित ही सरकारों पर डाल दी है।

 (लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं। आपको यदि कमलेश जैन से किसी प्रकार का परामर्श लेना है तो आप उन्हें  mailnitiriti@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं ) 

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Kamlesh Jain

कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और देश में कई बड़े केस लड़ चुकी हैं। चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमो की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वो हमेशा मुखर रही हैं। कमलेश जैन नीतिरीति के लिए अपने विचार और अनुभव लिखती रही हैं।

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