बात 1992-93 की है। हजारीबाग में एक आदिवासी लड़की पुलिस कांस्टेबल के पद पर काम कर रही थी। एक दिन सुबह 10 बजे वह अपने दफ्तर के लिए अपने घर से रवाना हुई। रास्ते में उसके वरीय पदाधिकारी का घर था। पदाधिकारी ने उसे खिड़की से अंदर बुलाया- कहा-मेम साहब कुछ बात करना चाहती हैं। वह चली गई। वहां जाकर उसने पाया कि उक्त पदाधिकारी के साथ एक और वरीय पदाधिकारी बैठे हैं। पहले पदाधिकारी की पत्नी या अन्य कोई वहां नहीं था। दोनों ने उसके साथ बलात्कार किया और कुछ घंटों के बाद वहां से जाने के लिए कहा।
उसने अपने अधिकार का प्रयोग किया और दोनों अधिकारियों के विरुद्ध एक रिपोर्ट दर्ज करवाई । घटना देश के सभी अखबारों में छपी। 2-3 दिनों तक यही छपता रहा कि कोई एफआईआर दर्ज नहीं हो रहा है, कोई गिरफ्तारी नहीं हो रही है। पटना से मैं और एक महिला संस्था की दो सदस्य हजारीबाग पहुंचे। वहां उस लड़की से मुलाकात हुई । वह स्टोर रुम में मुंह छुपाकर बैठी थी। वह घटना के दिन से ही दफ्तर भी नहीं जा रही थी। लगा कोई भयानक अपराध करने की वजह से शर्मिंदा है। यही मुझे कचोट गया। मैंने कहा- तुमने क्या किया है? तुम तो वहां अपनी मर्जी से गई भी नहीं थी। तुमने तो उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया। फिर तुम क्यों शर्मिंदा हो, तुमने दफ्तर जाना क्यों बंद कर दिया ? यदि तुम्हारे साथ कोई एक्सीडेंट हो जाता किसी कार से, तुम्हारे हाथ या पांव कट जाते तो क्या तुम शर्म से मुंह छुपा लेती? क्या डॉक्टर के पास इलाज़ के लिए और क्या पुलिस के पास ड्राइवर के खिलाफ मुकदमा दर्ज नहीं कराती? बस यही इसमें भी करो, अपराध बोध से बाहर निकलो, दफ्तर जाओ और बाकी काम हम करेंगे। वहां के आला अधिकारियों की बेरुखी, बेशर्मी से घटना से अनजान होने की बात, लड़की के चेहरे, गले, कलाई पर चोट की बात, सर्वोच्च न्यायालय में एक पत्र लिखकर मैंने भेज दी।
नतीजा- उन अधिकारियों को सज़ा मिली और अलविना को न्याय।
दूसरी घटना वर्ष 1999 की है। मेरी मुलाकात एक लड़की से हुई। पड़ोस के लड़के लड़की अपना ब्याह रचाने के लिए घर से भाग गए। लड़के के पड़ोसी एक गरीब परिवार के लोग थे। एक 15-16 वर्ष की लड़की, माता पिता और एक 2 वर्ष का छोटा भाई, बस यही छोटा सा परिवार था।
वे गरीबी से तंग आकर 2 वर्ष पर दिल्ली आए थे। भागी हुई लड़की की मां, चाचियों और घर के पुरुषों का गुस्सा इस गरीब लड़की पर उतरा। अपने अपमान का बदला उन्होंने इस लड़की को गांव की हाट में कपड़े फाड़कर सबके सामने घुमाकर चुकाया। बेटी का पिता पीछे पीछे हाथ जोड़कर ऐसा ना करने की अपील करता रहा पर एक भी आदमी ने अपराधियों को ऐसा न करने के लिए नहीं कहा। वे मूक तमाशबीन थे, कारण लड़की उनकी नहीं थी, किसी और की थी। और किसी और की लड़की की इज्ज़त बचाने की नहीं, लूटने के लिए होती है- वो यही सोच बैठे थे। मानवीय संवेदनाओं से मरा हुआ समाज था ये। ये जीवित लाशें थी जो किसी को शर्मसार होते देख प्रतिक्रिया नहीं कर सकती थी। लड़की हिम्मती थी, उसने मुकदमा दायर कर दिया।बदले में अपराधियों ने भी अपनी लड़की भगाने का आरोप लगाया इसी लड़की पर लगाया। यह मुकदमा चलता रहा। हाल में लड़की की रिहाई हो गई। पर जो मुकदमा उसने खुद के प्रति अन्याय के लिए दर्ज किया था, वह अभी तक कहां पहुंचा, वह नहीं जानती।
हर तारीख पर सरकारी वकील बदल जाता है। वह हर तारीख पर 50-60 रुपये खर्च करके अदालत पहुंचती है, पता चलता है मामला अगली तारीख को चला गया है। 6 वर्षों से ये लड़की रोती जा रही है, आंसू थमते ही नहीं। पुरानी गहरी पीड़ा से आंखें एक सेकेंड रोते रोते ही लाल हो जाती है, चेहरा सूख जाता है। बाप को Bone TB हो गया, मां घूरती रहती है। लड़की को ही 1500 रुपए की नौकरी करके परिवार का पेट पालना पड़ता है। घर के बाहर कदम रखते हीं लोग फूलन देवी -फूलन देवी कहकर उसे जलील करते हैं, हंसते हैं। उसने कहां- क्या करूं, धंधा कर लूं ? एक बार तो इज्जत जा ही चुकी है, अब नई क्या जाएगी ? पर जी नहीं करता। मैंने तो कभी गलत काम कभी किया ही नहीं, अब कैसे करूं?
मैंने कहा- मत करो जब तक से अंदर से ना चाहो। फिलहाल मुहल्ला बदलो, काम मैं बताउंगी, कुछ महीनों की मदद लो और अपना वातावरण बदलो। क्यों उसी नरक में रह रही हो। तुम भी उस अज्ञात आदिवासी लड़की की तरह आज से जान लो कि तुमने कोई अपराध नहीं किया है, तुम्हें रोना नहीं है और शर्मिंदा भी नहीं होना है। सोच लो, तुम्हारा पुनर्जन्म हुआ है। वह मेरी बात समझ गई है, अपना जीवन नए सिरे से जीने का संकल्प ले लिया है। अब वह सिर उठाकर जियेगी।
यह तो हुई अपनी बात। हम लड़कियां खुद अपने को किस श्रेणी में रखें और क्या करें?
अब बात उनकी जो हमें न्याय देने बैठे हैं। अभी 18/05/2005 को ही सर्वोच्च न्यायालय में जस्टिस एच के सेमा एवं जस्टिस बी एन श्रीकृष्णा की खंडपीठ में बैठी थी, मेरा मुकदमा 42वें नंबर पर था। मुझसे पहले एक युवा वकील का मुकदमा था। वह खड़ा हुआ बहस करने के लिए। जस्टिस एच के सेमा ने कहा- “ 4 वर्ष की बच्ची से बलात्कार के लिए एक साल की सज़ा? कानूनन कम से कम यह सात साल की सज़ा है। केस वापस ले लो। बहस करोगे तो हमें सज़ा बढ़ाने के लिए नोटिस जारी करनी होगी। जाओ जाओ अगर बचना है तो। “
वकील इशारा समझ गया और मुस्कुराते हुए वापस चला गया। मुकदमा खारिज हो गया था।
कहने का अर्थ है कि पुलिस, न्यायालय हर जगह पुरुष ही बैठे हैं जो अंदर हीं अंदर बलात्कारी पुरुष के लिए गहरी संवेदना रखते हैं- बेचारा- पल भर के लिए हवस के सामने घुटने टेक बैठा तो उसके लिए आखिर उसे कितनी सज़ा दी जाए। जो मिल गई काफी है, ना मिले तो और अच्छा है। इस सोच के कुछ अपवाद भी हैं। इतने गैर सरकारी संंस्थान भी आ गए हैं जिन्होंने शोर मचाकर सज़ा कम से कम सात साल करा दी है। पर गलत फैसला देने के लिए निचली अदालतें भूल (जानबूझकर) कर ही बैठती हैं जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय को सुधारना पड़ता है।
पर यदि बहस ही ना करवाई जाए, मुकदमा वापस करवा दिया जाए तो सज़ा बढ़ाने की ज़हमत से नहीं गुज़रना पड़ेगा।
कोई ना कोई रास्ता तो है जो उनके हाथों में जो शीर्ष पर हैं, जो अत्यंत बुद्धिमान है बलात्कारियों को बचाने के लिए। इससे लड़ना मुश्किल है, ये एक चक्रव्यूह है जिससे छोटी बच्चियां, लड़कियां नहीं निकल सकतीं। उनके बारे में पुरुष वर्ग नहीं सोचता तो उन्हें खुद ही कानून जानकर, उनका पालन करवाने की जिद कर, खुद को कहीं से भी लज्जित, छोटा ना समझकर, दूसरी स्त्रियों को पीड़िता के साथ एक जुट होकर इस चक्रव्यूह का सामना करना पड़ेगा। आज नहीं तो कल कहीं बराबरी का अवसर, सम्मान और हक हमें भी प्राप्त होगा ही।
इसी आशा के साथ !
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं। यदि आपको भी कमलेश जैन से किसी प्रकार का परामर्श लेना है तो आप उन्हें mailnitiriti@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं )