एयर होस्टेस गीतिका शर्मा के मामले में 11 वर्षों के बाद फैसला आया है। मुख्य अभियुक्त थे गोपाल कांडा। और भी कई तथ्यों के अलावा मामला मुख्यत: गीतिका के सुसाइड नोट पर आधारित था। आपराधिक मामलों में बाकी सुबूतों के अलावा यदि सुसाइड नोट भी एक साक्ष्य है, तो अदालत उसे पुख्ता मानती है, क्योंकि यह माना जाता है कि मौत के मुंह में जाता व्यक्ति झूठ नहीं बोलता। मगर सुसाइड नोट तब कारगर होता है, जब वह प्रताड़ना-उकसावे के बाद ही आत्महत्या करने की गवाही दे रहा हो। यानी, सुसाइड नोट लिखने और आत्महत्या के बीच का फासला यह साबित करता हो कि मरने वाले व्यक्ति के पास जीवित रहने, सोचने जैसी शक्ति नहीं बची थी। 

कानूनन वही सुसाइड नोट अदालत में टिकता है, जिसे लिखने के एक-दो घंटे के अंदर व्यक्ति ने आत्महत्या की हो। एक-दो दिन, सप्ताह, महीना या वर्ष का समय मान्य नहीं होता। खुदकुशी का मतलब है- खुद मृत्यु का वरण करना। गीतिका शर्मा के सुसाइड नोट की कुछ खास पंक्तियां हैं, ‘मैं आज खुद को खत्म कर रही हूं, क्योंकि मैं अंदर से टूट चुकी हूं। मेरा भरोसा टूट गया है और टूट रहा है। मेरी मौत के लिए दो लोग जिम्मेदार हैं- अरुणा चड्ढा और गोपाल गोयल कांडा। इन दोनों ने मेरा भरोसा तोड़ा है और अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया। इन्होंने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी।’ यहां दोनों व्यक्तियों की तरफ से आत्महत्या के लिए दो-चार घंटे पहले ऐसा उकसाया नहीं गया था कि गीतिका उसे बर्दाश्त न कर सके और आत्महत्या कर ले। यह अचानक, तीव्र और असहनीय होना चाहिए। यदि आत्महत्या कर रहे व्यक्ति के पास सोचने, समझने या निर्णय लेने का पर्याप्त समय है और वह सामान्यत: ठीक-ठाक सोच का मालिक है, तो वह अपनी जान लेने की कतई कोशिश नहीं करेगा। मगर यदि व्यक्ति ढुलमुल व कमजोर मन-मस्तिष्क का मालिक है, तो वह दुखी होने या धोखा खाने के महीनों बाद भी आत्महत्या कर सकता है। कानून में आत्महत्या जैसे मामलों में सामान्य बुद्धि-दिमाग वाले व्यक्ति द्वारा उठाए गए कदम पर ही किसी को दोषी ठहराया जाता है। फिर, यहां चड्ढा और कांडा की गलतियों को भी गीतिका माफ करती दिखती है। इसका अर्थ है कि मामला लंबा है और कारण भी। यह वर्षों का हिसाब-किताब है, और कभी भी इस परिस्थिति से बाहर निकला जा सकता था। अत: अदालत ने यदि कांडा को दोषी नहीं ठहराया, तो यह अनुचित नहीं।

सवाल यह भी है कि जब कोई व्यक्ति किसी मामले से इस तरह बाहर निकलता है, लेकिन अदालती प्रक्रिया में उलझकर अपना सब कुछ गंवा बैठता है, यहां तक कि सामाजिक इज्जत भी, तो क्या उसे इसकी क्षति-पूर्ति नहीं मिलनी चाहिए? जहां तक मुआवजे की बात है, तो यह अदालत या राज्य की तरफ से तभी मिलता है, जब व्यक्ति बेवजह, बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के जेल में रखा जाता है, रिहा होने के बाद भी जेल से बाहर नहीं किया जाता, जेल में ही उसकी मृत्यु हो जाती है या थाने में उसकी हत्या हो जाती है ..आदि। हालांकि, ऊपरी अदालतों में मुकदमों के निस्तारण में वक्त न लगे और त्वरित न्याय-प्रक्रिया सुनिश्चित हो, तो विचाराधीन कैदियों का बोझ कम हो सकता है। अभी होता यह है कि जिस मुकदमे का निर्णय ज्यादा से ज्यादा एक साल में होना चाहिए, उसमें भी 11-11 साल लग जाते हैं। साल 1983 में सर्वोच्च न्यायालय ने मेरे ही एक मुकदमे (रूदल साहा बनाम बिहार राज्य) में बतौर मुआवजा 35 हजार रुपये चुकाने का आदेश दिया था, जो अपनी तरह का पहला फैसला था। यह मुआवजा इसलिए दिया गया था, क्योंकि वह व्यक्ति 16 साल पहले रिहाई के बावजूद जेल में रखा गया था।

बहरहाल, गोपाल कांडा ने जिंदगी के कीमती वर्ष गंवाए हैं। गीतिका की आत्महत्या के वक्त वह हरियाणा में राज्यमंत्री थे। वह 18 महीने जेल में भी रहे। यानी, जीवन का एक महत्वपूर्ण समय और उपलब्धि उनके हाथों से निकल गई। ऐसे में, जनता का न्याय-प्रणाली पर असंतोष गलत नहीं जान पड़ता। हालांकि, यह काफी कुछ पुलिस-प्रशासन से जुड़ा मसला भी है कि वे किसी मामले को किस तरह अदालत में पेश करते हैं। फिर भी, सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार को मिलकर इस मुद्दे पर विचार करना चाहिए, ताकि कानूनी गिरफ्त में किसी व्यक्ति का कीमती वक्त बर्बाद न हो।

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये विचार उनके निजी हैं)

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Kamlesh Jain

कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और देश में कई बड़े केस लड़ चुकी हैं। चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमो की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वो हमेशा मुखर रही हैं। कमलेश जैन नीतिरीति के लिए अपने विचार और अनुभव लिखती रही हैं।

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