वैवाहिक संबंधों की पुनर्वापसी का अर्थ है- ऐसे पति-पत्नी के संबंधों की वापसी जो किसी भी वजह से अलग-अलग रहे हैं। जब कोई पक्ष वापस संबंध में आना चाहता है तो वह हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत निचली अदालत में याचिका दायर कर प्रार्थना करता है कि उसे दूसरे पक्ष के साथ रहने की आज्ञा दी जाय।
ऐसी व्यवस्था, पहले न तो हिन्दुओं में थी और न ही मुस्लिम लॉ के अंतर्गत। इस कानून को पहली बार ब्रिटिश कानून ने भारतीयों में हिंदू समुदाय के ऊपर लागू किया। इंग्लैंड में यह तब था जब वहां सामंतवादी प्रथा थी। जहां विवाह, मूलत: एक संपत्ति का सौदा था तथा पत्नी और बच्चे पुरुष के अधिकार में। इस तरह पत्नी एक गाय के समान थी जो यदि मालिक के खूंटे को तोड़ भाग जाय तो यह राज्य और अदालत की जिम्मेदारी थी कि वह उसे मालिक के खूंटे पर लाकर दोबारा बांध दे। उस समय पत्नी को गिरफ्तार कर मालिक के खूंटे पर बांधने का कानून था।
उस समय इस तरह के अन्य काल दोष कॉमन लॉ प्रचलित थे पर धीरे-धीरे उन्हें हटा दिया गया। लेकिन वैवाहिक कानूनों में बरकरार रहे। क्रमश: ये कानून ब्रिटेन की कॉलोनीज में हस्तांतरित कर दिये गये और ब्रिटेन में समाप्त कर दिये गये। जैसे किसी की पत्नी के साथ उसकी अनुमति के बिना कोई पुरुष अवैध संबंध बनाता है तो उस दूसरे व्यक्ति के पति को हर्जाना देना पड़ता है। यह कानून ब्रिटेन में समाप्त कर दिया गया पर भारत में हाल तक रहा।
भारत के ‘वैवाहिक संबंधों की पुर्नवापसी’ का कानून ब्रिटिश पीरियड में सन् 1884 में लाया गया। रुखमाबाई बनाम दादूभाई के केस में। रुखमाबाई, जयंतीभाई की बेटी थी। जब वह ढ़ाई वर्ष की थी, पिता की मृत्यु हो गयी। उसकी मां ने डा. सरकाराम अजरुन से दूसरा विवाह किया। बढ़इयों के यहां पुनर्विवाह होता था। रुखमा की माता ने पहले पति से प्राप्त उस समय 25 हज़ार रुपए की जमीन को रुखमा के नाम कर दिया। जब वह 11 वर्ष की थी उसका विवाह गरीब दादोजी से हो गया। क्रमश: रुखमा पढ़-लिखकर एक शिक्षित, भद्र स्त्री हो गई। जबकि दादोजी अनपढ़, शराबी पुरुष। युवा होने पर रुखमा ने पति और उसका घर देखा और ससुराल जाने से मना कर दिया। तब दादोजी ने अपने पास लाने के लिए एक मुकदमा कर दिया। इसका मुख्य कारण था उस जमाने में रुखमा के पास हजारों की जमीन थी। यहां पहली बार भारत में वैवाहिक संबंधों की पुनर्वापसी कानून का जन्म हुआ।
रुखमाबाई सौतेले डाक्टर पिता की वजह से पढ़-लिख कर टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबारों में लिखने भी लगी थी। वह सामाजिक बुराइयों, धार्मिक अत्याचार पर खुलकर लिखती थी। एक बार लिखा- ‘मैं उन अभागी लड़कियों में से एक हूं जो हजारों दुखों से गुजरती रहती हूं जो बाल विवाह से उत्पन्न होते हैं।’
रुखमाबाई के मुकदमे में फैसला हुआ कि यदि रुखमा अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती तो अपनी जमीन दादोभाई को सौंप दे, अन्यथा जेल जाए। रुखमा ने अपनी जमीन दे दी। आज भी कानून है कि जो पक्ष साथ रहना नहीं चाहता वह मुआवजा दे दूसरे को। यह फैसला कहीं से भी संविधान सम्मत नहीं।
1983 में पहली बार टी. सरिया बनाम वेंकटरमैया के मुकदमे में आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने पहली बार कहा- ‘यह कानून व्यक्ति की अपनी पसंद स्वतंत्रता और मानवीय सम्मान का उल्लंघन है जो संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, मनमाना है, अनुचित है। पर 1984 में हरमिंदर बनाम हरमिंदर में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसा कुछ नहीं है, यह कानून संविधान सम्मत ही है।
इस तरह के दो विरोधाभासी फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट ने 1984 में सरोज रानी बनाम सुदर्शन ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के पक्ष में कहा कि यही फैसला सही है। उन्होंने कहा- ‘एक घर की प्राइवेसी और वैवाहिक जीवन में संविधान के वैयक्तिक स्वतंत्रता एवं बराबरी अनुच्छेद 21 और 14 की कोई जगह नहीं है। ‘एक संवेदनशील, घनिष्ठ, नाजुक घर में वैवाहिक रिश्ते में संविधान के ठंडे प्रावधानों की कोई जगह नहीं है।’ पर यह तर्क कहीं से भी उचित नहीं है। एक व्यक्ति सिर्फ यौन संबंध के लिए विवाह नहीं करता बल्कि वह एक संवेदनशील, समझदार साथी के लिए करता है जो उसे जिंदगी की खुशी और दुखों को बांटने के लिए करता है। जबरदस्ती किसी के साथ रहने के लिए मजबूर करना कहीं से भी उचित नहीं है। मात्र विवाह और उसके रिवाज साथ रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। यह तो जीते-जागते नरक के समान है।
बदलते समय के साथ ब्रिटेन ने इस कानून को खत्म कर दिया पर वहीं के एक विद्यावान ने कहा कि ब्रिटेन की स्त्रियां समझदार, बुद्धिमान हो चुकी हैं कि वे अपने फैसले ले सकें, पर भारत में यह कानून अभी रहना चाहिए, कारण कि स्त्रियां इतनी समझदार नहीं हैं।
इस कॉलोनियल कानून को भारत में बने रहने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा इस कानून को हटाने का मतलब है कि ‘एक सांड़ को ‘शीशे की दुकान’ में प्रवेश देना। आज भारत की स्त्रियां भारत में ही नहीं विदेशों में भी शीर्ष स्थान पर हैं। इस कानून के विरोध में 42 वर्षो बाद सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना ही चाहिए।
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