सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अदालतों को स्त्रियों पर टिप्पणी करते वक्त नारी-द्वेष से भरी एवं प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली भाषा पर नियंत्रण रखना चाहिए। ऐसी टिप्पणी का असर नकारात्मक होता है, जिससे न सिर्फ न्यायाधीश की छवि खराब होती है, बल्कि पूरी न्याय-व्यवस्था ही कठघरे में खड़ा हो जाती है। शीर्ष अदालत ने यह बात पटना उच्च न्यायालय की उस टिप्पणी के संदर्भ में कही, जिसमें कहा गया था कि मेकअप की सामग्रियां किसी विधवा के काम नहीं आतीं।
निस्संदेह, यह अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी है। यह नारी-भावना और शालीनता के खिलाफ भी है। देखा जाए, तो यह पूरा मामला ही न्यायाधीश की व्याख्या को नए सिरे से व्याख्यायित करता है। दरअसल, हाईकोर्ट यह जांच रही थी कि पीड़ित महिला जहां से गायब की गई थी और बाद में मार दी गई, क्या उसी कमरे में रहती थी, जहां से उसे उठाकर ले जाया गया था। उस कमरे में शृंगार की सामग्रियां मिली थीं और जिरह के दौरान यह भी साक्ष्य में आया था कि उस कमरे में एक विधवा भी रहती थी। उच्च न्यायालय ने इसी संदर्भ में मेकअप संबंधी टिप्पणी दी।
इस मामले से पहले कर्नाटक हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश का वीडियो भी सोशल मीडिया में वायरल हो रहा था, जिसमें वह एक महिला वकील के खिलाफ असंवेदनशील और आपत्तिजनक टिप्पणी कर रहे थे। वीडियो में महिला वकील से कहा गया था कि वह दूसरे पक्ष के बारे में बहुत कुछ जानती हैं, इतना कि अगली बार वह उसके अंडरगारमेंट्स का कलर भी बता सकती हैं। ऐसी टिप्पणियां न सिर्फ कानूनन गलत हैं, बल्कि आपत्तिजनक भी हैं। ऐसे मामले कहीं न कहीं महिला-विरोधी सोच की ओर भी इशारा करते हैं और संकेत करते हैं कि भारतीय अदालतों को, जिनको ‘स्कूल ऑफ डिसेंसी’ कहा जाता है, अब भी कितना शालीन होना है।
सच यही है कि स्त्रियों के बारे में इस तरह की तुच्छ सोच वर्षों से चली आ रही है। कुछ न्यायाधीश भी इसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नजर आते हैं। मुझे पांच दशक पहले की वह घटना याद आ रही है, जब मैंने वकालत की शुरुआत की थी। उस समय पटना उच्च न्यायालय में महिलाओं से जुड़े मामले में बहस करना काफी मुश्किल होता था। जब ऐसे मामले शुरू होते, तो एक व्यंग्यात्मक, रस से भरी हंसी सबके चेहरे पर तैर जाती थी। यह जानते हुए भी कि दुष्कर्म-पीड़िता के लिए अपने साथ हुई बर्बरता का वर्णन करना कितना मुश्किल होता है, उनको बार-बार घटना का ब्योरा देने को कहा जाता था, मानो अदालत कक्ष में मौजूद लोग उसका रस ले रहे हों। यह स्थिति तब होती थी, जब याचिका में एफआईआर की कॉपी लगी होती है और यह लिखा होता है कि किस धारा के तहत मामला दर्ज किया गया है।
ऐसी ही एक बहस में जब मैं अपील के लिए खड़ी हुई, तो मैंने ‘बलात्कार’ या ‘दुष्कर्म’ शब्द का जिक्र तक नहीं किया। चूंकि वह केस सेक्शन 375 का था, इसलिए न्यायाधीश से मुखाबित होकर मैंने कहे, आरोप अमुक पेज व अमुक पाराग्राह में है और ब्योरा अमुक पेज व अमुक पाराग्राफ में, कृपया इसे पढ़ लिया जाए। कहने का मतलब यह है कि बिना शालीनता भंग किए भी अपनी बात रखी जा सकती है, बस इसके लिए आपको कुछ संजीदा होना है। दुर्भाग्य है, अदालतों में इसका कई बार अभाव दिखता है।
दिक्कत यह है कि महिलाओं से जुड़े मामलों को कैसे संबोधित किया जाए, इसकी चर्चा कानून में कहीं नहीं है। यह स्वविवेक का मसला है और यह अपेक्षा की जाती है कि हर गवाह, वकील और खासकर न्यायाधीश शालीनता का परिचय देंगे। देखा जाए, तो इसकी उम्मीद अदालतों से ही नहीं, घर और समाज, भी से होनी चाहिए। हमारे देश में सदियों से नारी दोयम दर्जे की समझी जाती रही हैं, इसलिए अदालतों में भी हमें इसकी झलक मिल जाती है, जबकि जिन घरों में बेटियों को बेटों की तरह पाला जाता है, वहां बेटियां हर क्षेत्र में या तो बेटों के बराबर या उससे अधिक ऊंचाई पाती हैं।
अदालत में फैसला सुनाते वक्त हृदय और आत्मा, दोनों के निष्पक्ष होने की उम्मीद की जाती है। इसी से न्यायाधीश की महत्ता समझी जाती है। कानून की बुनियादी पढ़ाई के समय ही यह बात विद्यार्थियों के मन में बैठाने की कोशिश होती है। बावजूद इसके, यदि अदालत कक्ष में जेंडर से जुड़ी प्रतिकूल टिप्पणियां आ रही हैं, तो यह बहुत हद तक उस व्यक्ति की आंतरिक सोच से जुड़ा मामला है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि जिस व्यक्ति की जैसी मानसिकता होती है, वह वैसा ही न्यायाधीश होता है। मन में स्त्रियों के प्रति संदेह रखने वाले जज से भला कैसे अपेक्षा करेंगे कि वह महिलाओं को लेकर संवेदनशीलता दिखाएंगे।
इंग्लैंड, अमेरिका में हम इस तरह के मामले नहीं देखते, क्योंकि वहां का समाज महिलाओं के प्रति दुराग्रह नहीं रखता। मगर हमारे समाज में महिलाओं के प्रति ऐसा संकीर्ण नजरिया है कि हम गाली भी लैंगिक शब्दों से देते हैं। मुझे याद है कि निर्भया मामले की जब सुनवाई हो रही थी, तो इस मामले से जुड़े एक वकील ने आपसी बातचीत में कहा था कि मिठाई का डिब्बा खुला रहेगा, तो लोग खाएंगे ही। असल में, वह इस बात से खफा थे कि निर्भया अपने मित्र के साथ देर शाम बाहर गई ही क्यों थी? अगर वह बाहर नहीं जाती, तो उसके साथ ऐसी कोई दुर्घटना नहीं होती। जब वकील की यह टिप्पणी हो, तो अदालत कक्ष में स्त्रियों के प्रति उनका रवैया कैसा होता होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है?
साफ है, न्यायपालिका से जुड़े तमाम लोगों को यह प्रशिक्षण मिलना चाहिए कि औरतों से जुड़े मामले में कैसी संवेदनशीलता उन्हें दिखानी चाहिए। वकीलों के लिए यह दिशा-निर्देश तो है कि उनको किस तरह के कपड़े पहनकर अदालत में आना चाहिए, किस तरह के आचरण का परिचय देना चाहिए या फिर बहस किस शालीनता से करनी चाहिए, लेकिन औरतों के प्रति व्यवहार को लेकर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं होने के कारण हम लैंगिक टिप्पणियां सुनते आ रहे हैं। इसे बंद करने का वक्त आ गया है। जिस तरह अदालतों में अश्लील सवाल-जवाब को अब खत्म कर दिया गया है।
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं। आपको यदि कमलेश जैन से किसी प्रकार का परामर्श लेना है तो आप उन्हें mailnitiriti@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं )