पहली मई को सर्वोच्च न्यायालय की पांच जजों की संविधान पीठ ने शिल्पा शैलेश और वरुण श्रीनिवासन के मुकदमे में पति-पत्नी के बीच वर्षों से चली आ रही उलझनों का स्थायी निवारण कर दिया। इसके साथ तीन और पति-पत्नी (नीति मालवीय बनाम राकेश मालवीय, अंजना किशोर बनाम पुनीत किशोर, और मनीष गोयल बनाम रोहिणी गोयल) के मुकदमों का भी फैसला सुनाया गया। कुल 61 पृष्ठों में आए इस निर्णय से तलाक आसान बनाने की दिशा में उल्लेखनीय कदम बढ़ाए गए हैं।
वैवाहिक मामलों में दरार पिछले दो-ढाई दशकों में बढ़ी हैं। इस दरम्यान संसद से नए-नए कानून बने, जिनकी वजह से रिश्तों में सुधार होने के बजाय उलझन बढ़ती गई है और अदालतों पर तलाक के मुकदमों को बोझ बढ़ता गया है। इसकी शुरुआत 1983 से हुई, जब 25 दिसंबर को भारतीय दंड संहिता में धारा 498- Aजोड़ा गया। इसने पत्नी को दहेज के लिए प्रताड़ित करने, मारने-पीटने या अन्य प्रकार की क्रूरता करने के लिए पति और उसके परिजनों पर मुकदमा करना आसान बना दिया। इसमें एफआईआर, यानी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होते ही पूरा परिवार, चाहे वह अलग-अलग राज्यों में रहता हो, गिरफ्तार कर लिया जाता, बेशक मुकदमे की विवेचना बाद में होती रहती। इस बाबत एक जनहित याचिका (रिट पिटिशन नंबर 8/2003) मैंने खुद सर्वोच्च न्यायालय में 2003 में डाली थी, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि वह ऐसा करने में असमर्थ है। उसने इसके लिए संसद और भारतीय विधि आयोग को आदेश व याचिका की कॉपी भेजने की बात कही थी। बाद के वर्षों में बदलाव हुआ है, और अब परिवार जेल नहीं जाता, सिर्फ पति जा सकता है, वह भी स्पष्ट आधार पर।
घरेलू हिंसा कानून, 2005 का भी इसी तरह बेजा लाभ उठाया जाता रहा, जबकि इसमें यह राहत थी कि आप अपनी सभी समस्याओं को एक ही अदालत में रख सकते हैं, जैसे तलाक, रख-रखाव का खर्च, अलग घर या उसी घर में ठीक से रहने की व्यवस्था, बच्चों का समाधान, क्रूरता (मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, यौनिक आदि) से छुटकारा आदि। इसमें पति या किसी रिश्तेदार को जेल भेजे बिना सभी समस्याओं का एक जगह समाधान संभव था। मगर कुछ स्त्रियों को यह रास्ता पसंद नहीं आया। मानो उन्हें विवाह के कुछ महीनों-वर्षों में ही अपने दुखों का निवारण देश की अलग-अलग अदालतों में विभिन्न मुकदमों के जरिये करना है। इसे एक मामले से समझ सकते हैं- साल 2011 में एक लड़का और लड़की की शादी होती है। लड़का विदेश में नौकरी करता है और लड़की भारत में। लड़की कुछ महीने दिल्ली अपनी ससुराल में रहती है। मगर किसी कारण लड़की को विदेश ले जाने के लड़के के प्रयास विफल हो जाते हैं, जिस कारण दोनों में तनाव बढ़ने लगता है। 2021 में लड़का उत्तर प्रदेश में तलाक का मुकदमा दायर करता है, जिसके जवाब में लड़की बिहार में (भरण-पोषण के अधिकार का), दिल्ली में (घरेलू हिंसा का) और उत्तर प्रदेश के दूसरे हिस्सों में (दहेज हिंसा, 498-ए के तहत) मुकदमे दर्ज करती है। इनकी तारीखें अलग-अलग होती हैं, जिस कारण लड़के को बार-बार भारत आना पड़ता है। इन सबसे बचने के लिए वह लड़की को 50,000 रुपये महिना देने की पेशकश करता है, लेकिन लड़की को एकमुश्त बतौर मुआवजा सवा करोड़ रुपये चाहिए। आखिरकार लड़का सर्वोच्च न्यायालय का रुख करता है, जहां अब लड़की को नोटिस जारी कर दी गई है। दरअसल, ऐसे हालात में लड़का अक्सर झुकता है, ताकि उसका परिवार सुख-चैन से रह सके। इसके लिए वह मोटी रकम देने के लिए भी तैयार हो जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला इन तमाम मुश्किलों का समाधान हो सकता है। यह फैसला इस आधार पर किया गया है कि जिस रिश्ते में ऐसी खाई बन गई है, जिसे पाटा न जा सके, उसमें तलाक के लिए छह महीने का इंतजार आखिर क्यों किया जाए? उल्लेखनीय है कि कोई भी विवाह तभी सुचारू रूप से चलता है, जब पति-पत्नी, दोनों शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तौर पर एक साथ हों, एक जगह रहते हों और पति-पत्नी का संबंध निभाते हों। अगर पति-पत्नी में वर्षों का अलगाव है, तो उसका यही अर्थ है कि उनमें जुड़ने की इच्छा मर चुकी है।
हालांकि, अब भी तलाक मांगने की प्रक्रिया निचली अदालत से ही शुरू होगी। हां, जब कोई समझौता न हो सकेगा, एक भी पक्ष अलग होना चाहे या दोनों में अलगाव लंबा हो, तो उस स्थिति में वह सर्वोच्च न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद- 142 के तहत अर्जी डालकर तलाक की मांग कर सकता है। उल्लेखनीय है कि ‘इरिट्रीवबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज’ यानी ‘पूरी तरह से टूट गए रिश्ते’ के आधार पर तलाक के लिए मुकदमा करना व्यक्ति का अधिकार नहीं है, बल्कि उसे उपयोग करना न्यायालय के विवेक पर होगा, ताकि पति-पत्नी के बीच ‘संपूर्ण न्याय’ हो सके। यहां संपूर्ण न्याय से मतलब है, पति-पत्नी का संबंध विच्छेद, उचित मुआवजा, उनके बच्चों का भविष्य आदि तमाम मसलों पर गौर करते हुए फैसला देना।
ताजा फैसले का उद्देश्य यह भी है कि युवावस्था में जुड़े जोड़े अदालतों में दौड़ते-दौड़ते बूढ़े न हो जाएं। वे समय से नए जीवन की शुरुआत कर सकें। आज स्थिति यह है कि निचली अदालतों से लेकर, उच्च व सर्वोच्च न्यायालयों तक तलाक के मुकदमों की भरमार है। 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ उत्तर प्रदेश के परिवार न्यायालय में 61,000 से अधिक मुकदमे लंबित थे। बेशक, भारत में तलाक की दर दुनिया में सबसे कम 1.1 प्रतिशत है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट कहती है कि पिछले 20 वर्षों में तलाकशुदा लोगों की संख्या दोगुनी हुई है, जिसका अर्थ है कि अपने देश में रिश्तों में टूटने की दर बढ़ने लगी है।
जब पति-पत्नी में संबंध विच्छेद ही एकमात्र रास्ता हो, तो यह प्रक्रिया जितनी सरल हो, उतना अच्छा। इसके लिए संसद को आगे आना होगा। जैसे, ‘इरिट्रीवबल ब्रेकडाउन ऑफ मैरिज’ का जिक्र कानून में नहीं है, जबकि न्यायालय करीब एक दशक से इस आधार पर तलाक दे रहा है। ऐसा नहीं है कि ताजा फैसले के बाद तलाक के मुकदमे कम हो जाएंगे, इसकी संख्या बढ़ भी सकती है, लेकिन त्वरित न्याय की दिशा में इसका लाभ मिलेगा। इसी तरह, तलाक, मुआवजा, बच्चों का निर्णय, घरेलू हिंसा का समाधान आदि एक ही फोरम पर हो, तो कहीं अच्छा होगा। उम्मीद है, संसद ऐसे मामलों में संजीदगी दिखाएगी।

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Kamlesh Jain

कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और देश में कई बड़े केस लड़ चुकी हैं। चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमो की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वो हमेशा मुखर रही हैं। कमलेश जैन नीतिरीति के लिए अपने विचार और अनुभव लिखती रही हैं।

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