चुनावी बॉन्ड पर भारत के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को फटकार पर फटकार मिल रही है। शुक्रवार, 15 मार्च 2024 की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर ऐतराज जताया कि SBI ने चुनाव आयोग को डो डाटा दिया गया उसमें बॉन्ड नंबर क्यों नहीं है। बॉन्ड नंबर मिलने से ये पता चल जाएगा कि किस पार्टी को किसने चंदा दिया। अदालत ने SBI को नोटिस जारी किया और सोमवार को दोबारा सुनवाई करेगी। 

दरअसल ये पूरा मामला चुनावी चंदे का है जिसे लेकर पिछले कई सालों से सवाल खड़े हो रहे हैं कि कौन किसे पैसे दे रहा है इसका खुलासा तो होना ही चाहिए। इससे पहले आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) को सख्त चेतावनी देते हुए कह ही डाला कि वह मंगलवार शाम तक चुनावी बॉन्ड का ‘ब्रेक अप’ बताए, यानी इस बात का खुलासा करे कि चुनावी बॉन्ड के रूप में किसने, कितने रुपये, किसी पार्टी को दिए हैं, अन्यथा 15 मार्च को शीर्ष अदालत खुद (SBI) पर अवमानना का मुकदमा दायर कर देगी। यह निर्देश सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने एक मत होकर दिया है।

चुनावी बॉन्ड योजना को वर्ष 2017 में वित्त विधेयक के रूप में पेश किया गया था। इसे काला धन से निपटने के एक तरीके के तौर पर जरूर पेश किया गया था, लेकिन इसमें राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदा गुप्त भी था और उसकी कोई सीमा भी तय नहीं की गई थी। इसके तहत ‘प्रॉमिसरी नोट्स’, यानी वचन-पत्र के रूप में बैंक से बॉन्ड खरीदे जा सकते थे, जिनको अपनी बैलेंस शीट में दिखाना दानकर्ताओं के लिए जरूरी नहीं था। वे अपनी बैलेंस शीट इसे सरकार को न दिखाने को स्वतंत्र थे। जाहिर है, यह सीधे-सीधे संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 19 (1) (अ) (सूचना के अधिकार) का उल्लंघन था। 

चुनावी चंदे को लेकर यह कोई नया विवाद नहीं था। भारत में यह लगातार मांग होती रही है कि राजनीतिक दलों को जितनी रकम बतौर चंदा मिलती है, उसकी प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। मगर येन-केन-प्रकारेण सभी दल इससे बचते रहे हैं। चुनावी बॉन्ड में भी राजनीतिक दलों पर यह दायित्व नहीं दिया गया था कि वे चंदे की रकम या चंदा देने वाले का नाम जाहिर करें। मतदाताओं के सामने यह रहस्य ही था कि राजनीतिक दलों के पास चुनावी बॉन्ड के रूप में किससे, कितने रुपये आए।

अब जबकि चुनावी बॉन्ड का अध्याय खत्म होने को है, सवाल यह भी है कि राजनीतिक दलों के लिए चंदे की एक आदर्श व्यवस्था क्या हो? देखा जाए, तो यह काम राजनीति दलों को अपने आप तय करना चाहिए, क्योंकि भारत एक ऐसा जीवंत लोकतंत्र है, जहां किसी भी प्रकार की लुका-छिपी स्वीकार्य नहीं हो सकती। चंदे में पारदर्शिता का न होना लोकतंत्र के लिए एक गंभीर रोग है, जो इसकी जड़ों को खोद सकता है। ऐसे में, सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही लोकतंत्र रूपी वृक्ष को हरा-भरा रखने के लिए चंदे रूपी खाद को पवित्र करने का एक प्रयास किया है। 

अदालतें सिर्फ कानून की रक्षा करने के लिए जवाबदेह होती हैं और वे अपनी इसी सीमा में चुनाव सुधार को आगे भी बढ़ा रही हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर चुनाव प्रणाली को स्वच्छ बनाए रखने की कोशिश की है। जैसे, चुनाव में खड़े होने वाले प्रत्याशियों का नजरिया साफ-सुथरा हो, वे अपराधी न हों, विक्षिप्त न हों या उनका आचरण सभ्य समाज के अनुकूल हो। इस बार अदालत ने यह इशारा किया है कि गुमनाम चंदा लोकतंत्र के हृदय को ही बीमार करता है।

इसी तरह, किसी भी विधेयक को वित्त का चोला पहनाकर जो चोर दरवाजा संसद में अपनाया जाता है, उस पर भी निगरानी आवश्यक है। चुनावी बॉन्ड को वित्त विधेयक के रूप में पेश किया गया था, जनता के बीच व्यापक विमर्श के बिना किसी विधेयक को यूं लाया जाना एक गलत नज़ीर पेश करता है।

अपने पिछले आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने 12 अप्रैल, 2019 से लेकर अब तक खरीदे गए सभी चुनावी बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग को देने का निर्देश स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) को दिया था। इसके जवाब में ही स्टेट बैंक ने आगामी 30 जून तक यह जानकारी देने का अनुरोध करते हुए एक याचिका दायर की थी, जिस पर अदालत ने सख्ती दिखाई है। सवाल है कि आंकड़े जारी करने में बैंक अधिकारियों को आखिर दिक्कतें क्या आ रही हैं? उनको यह बताने में संकोच क्यों हो रहा है कि किसने, कितने रुपये, किस राजनीतिक दल को दिए? किसी पार्टी ने कब अपने बॉन्ड भुनाए? चूंकि इन सवालों का स्पष्ट जवाब स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) की ओर से अब तक नहीं आया है, इसलिए यह शंका भी पैदा होती है कि क्या किसी दबाव में वह इन आंकड़ों को जारी करने से हीला हवाला कर रहा है?

अदालत ने चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाने का फैसला सांविधानिक न्यायिक पुनरीक्षण के तहत किया है। यह एक तरह का सांविधानिक स्व-आत्मनियंत्रक न्यायिक पुनरीक्षण सिद्धांत का पालना है, जो सरकार की सभी संस्थाओं पर लागू होता है। यह सिद्धांत एक तरह से यह बाध्य करता है कि जरूरी सूचनाओं की पहुंच सभी लोगों तक हो। यह समझने की बात है कि किसी अधिकार पर विवेकशील रोक लगाना उस अधिकार को खत्म करना नहीं होता। कानून किसी अधिकार पर विवेकशील रोक लगा सकता है, यदि रोक का उद्देश्य कानूनन सही है, लक्ष्य तक पहुंचने में यह मदद करे, मौलिक अधिकार पर कम से कम बाधित करे आदि। संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के अंदर जो मौलिक अधिकार दिए गए हैं, उसका यह मतलब नहीं है कि हम काला धन अपने पास रखें। 

बहरहाल, सिर्फ कानूनन रोक लगाकर चुनाव में काला धन की आमद रोकना मुश्किल है। इसके लिए कई अन्य प्रयास भी करने होंगे। मसलन, चुनावी ट्रस्ट बनाना, चुनाव में कॉरपोरेट से फंड लेने पर रोक लगाना आदि। चुनावी बॉन्ड जहां चंदे के लेन-देन को गुप्त रखता है, वहीं मतदाताओं के अधिकार (सूचना के अधिकार) का भी हनन करता है। ऐसे में, बेहतर तरीका तो यही है कि चुनावी प्रणाली में पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए चंदे की व्यवस्था पारदर्शी बने, एक-एक पैसे की जानकारी पार्टियां खुद सार्वजनिक करें और मतदाताओं के अधिकारों का भी हनन न हो। 

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि 1958 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एम सी छागला ने चेताया था कि ‘बिग बिजनेस’ और ‘मनी बैग्स’ वास्तव में लोकतंत्र का गला घोंट देते हैं, यानी बड़े-बड़े घरानों से राजनीतिक दलों को मिलने वाली पैसों की थैलियां लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक नहीं। आज के समय में जब चुनाव खर्च काफी ज्यादा बढ़ गया है, छागला की यह टिप्पणी प्रासंगिक जान पड़ती है। ऐसे में, अदालत का दायित्व कहीं ज्यादा है कि वह किसी अनुचित और भ्रष्ट आचरण को रोके। चुनावी बॉन्ड पर सख्त रुख अपनाकर शीर्ष अदालत ने यही किया है।

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

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Kamlesh Jain

कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और देश में कई बड़े केस लड़ चुकी हैं। चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमो की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वो हमेशा मुखर रही हैं। कमलेश जैन नीतिरीति के लिए अपने विचार और अनुभव लिखती रही हैं।

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