एक समय था जब लड़की के मायके वाले लड़की का विवाह, एक पवित्र संस्कार के तहत, अपनी हैसियत के अनुसार अपनी मर्जी से, दान में कुछ सामान और अपनी पुत्री को ससुराल विदा करते थे।

लड़के वाले कुछ समय बाद दहेज मांगने लगे, लड़की के पिता कर्ज लेकर, जमीन बेचकर, दहेज का इंतजाम करते और बेटी को विदा कर देते। यह सब कुछ कहीं-कहीं, किसी परिवार के लिए अत्यंत कष्टप्रद होता। इसे देखते हुए दहेज कानून ‘दहेज निषेध कानून 1961 आया।’ इसके अंतर्गत शादी के पहले, शादी के अवसर पर और शादी के बाद दहेज लेना और देना दोनों ही अपराध बन गए। इस अपराध की सजा कम से कम 5 वर्ष हो गई और जुर्माना 15 हजार या इससे ज्यादा हो गया। कानून का उल्लंघन दिखाने भर के लिए कम हुआ। लोगों ने संगठन बनाया ‘दहेज रहित विवाह का।’ कुछ लोगों ने सचमुच इस पर अमल किया।

पर यह कानून और दूसरे कानूनों की तरह कानून की किताब की शोभा बना रहा, जमीन पर नहीं उतरा। दहेज की तामझाम, सजावट, लेन-देन, दिन दूना रात चौगुना बढ़ता रहा। संतरी से लेकर मंत्री तक इसकी उपेक्षा करते रहे। दहेज के लिए लड़कियां ससुराल में प्रताड़ित हुई, उपेक्षित हुई। कहीं जलाकर मारी गई तो कहीं घर से बाहर की गई। तरह-तरह की यातनाए दी गई।

कानून ने यह सब देखा, सुना, महसूस किया और तब 1983 में भारतीय दंड संहिता में धारा 498 (पति तथा पति के रिश्तेदारों द्वारा अत्याचार) अपराध जोड़ा गया। इसके अंतर्गत बहू (पत्नी) के ऊपर (शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक) अत्याचारों को शामिल किया गया जो कि उस पर दहेज ज्यादा लाने के लिए किये जाते। इनकी व्याख्या, विस्तार, तरीके उतने ही है जितने सोचे जा सकते हैं। हर स्तर, तबके की लड़की के लिए अलग-अलग। इसकी सजा है 3 वर्ष तक और जुर्माना भी।

घर में रहने वाले, शहर में रहने वाले, अलग-अलग राज्यों और देशों में रहने वाले सारे रिश्तेदार लड़के के ननिहाल, ददिहाल वालों पर एफआईआर (FIR) में नाम भर आने से सभी गिरफ्तार हो जाते, जमानत मुश्किल से मिलती। कभी-कभी लड़का खुद को दोषी समझ आत्महत्या भी कर लेता। पूरा परिवार जेल में रहने से परिवार संकट में पड़ जाता।

1986 में भारतीय दंड संहिता में धारा 304-बी ‘दहेज हत्या’ भी लाई गई। इसके अनुसार यदि विवाहिता की मौत असाधारण परिस्थितियों में, विवाह के सात वर्षो के अंदर हुई है तो वर पक्ष पर ‘दहेज हत्या’ का मुकदमा चलता है, जिसकी सजा है कम से कम 7 वर्ष और ज्यादा से ज्यादा आजीवन। इसके बाद जब कानून ने देखा कि वर पक्ष पर आईपीसी की धारा 498 ए तथा संदिग्धावस्था में मौत पर धारा 304-बी के झूठे मुकदमों की भरमार हो गई, वर पक्ष, परिवार कराह उठे तब 2005 में घरेलू हिंसा कानून बना। पहले तो लोगों ने इसे आपराधिक मामला समझा पर पता लगा कि यह दीवानी है, आदेश नहीं मानने पर आपराधिक है। हालांकि यह कानून अच्छी सुविधाएं प्रदान करता है (ससुराल वाले जेल नहीं जाते) जैसे-सरकार द्वारा नियुक्त सुरक्षा अधिकारी और सेवा प्रदाता आपकी रक्षा करते हैं, किसी कारणवश अदालत से आदेश लाना संभव नहीं होता तो आदेश भी ला देते हैं। यह अदालत एक जगह, एक साथ, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, भावनात्मक शोषण से बचाती है, गाली-गलौज, तानों से बचाती है। आपका स्त्रीधन, संपत्ति सुरक्षित रखती है, दहेज से बचाती है। अलग घर, चिकित्सा, नौकरी करने की आजादी, साथ रहने की सुरक्षा वगैरह सब एक जगह देती है।

पर इतने कानूनों के बाद होता क्या है? अब एक शादी होती है। ज्यादातर इकलौता लड़का होता है। लड़की के साथ उसका पूरा परिवार होता है। बिना दहेज या खुद से कुछ देकर लड़की वाला विवाह करता है। कुछ उदाहरण देखें। शादी के बाद लड़की दोनों तरफ का दान, दहेज उपहार लेकर आती है। नामचीन लेखक का घर है। उसी रात एक मिनी ट्रक लेकर साला आता है, बहन, भाई सामान के साथ घर से चले जाते हैं। एक जगह लड़की ससुराल आती है- साथ मां, भाई वहीं साथ रहते हैं- लड़के के घर वालों को जलील, प्रताड़ित करते हैं- आईपीसी की धाराओं 498(ए), 307, 323, 377, 406 और 120 (बी) केस करते हैं, लड़के के माता-पिता, 4 बहनों और लड़के पर एक राज्य में घरेलू हिंसा कानून का अलग, दूसरे राज्य में मेनटेनेंस का, तीसरे राज्य में फिर मेंटेनेंस आदि। लड़के की बड़ी नौकरी जा सकती है, रुपया बेशुमार खर्च होता है, बच्चा भी मायके चला जाता है। 10-12 साल गुजर जाते हैं। न तलाक होता है ना ही वैवाहिक सुख।

ऐसे ही मुकदमे बाहरीन में रह रहे लड़के के साथ, चीन, कुवैत, अमरीका, दुबई में रहने वाले लड़के के साथ विवाह यहां, दुर्गति वहां।  भारत में रहने वालों के साथ, देश के कई राज्यों में यह 3-4 मुकदमे, वर्षो दौड़ते पैसा खर्चते, मेंटेनेंस देते, बेटे वैवाहिक-शारीरिक, मानसिक आनंद से वंचित होते देखा जा सकता है।

पत्नी अपने माता-पिता, भाई-बहन, बच्चे के साथ ऐलिमोनी एक करोड़ 50 लाख, मकान के साथ स्वर्ग का आनंद ले रही है। पर अब सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को बात समझ आ रही है। कुछ फैसले आ रहे हैं, पर दर-दर की ठोकरों के बाद। नीचे के न्यायालय अभी भी मंद गति में हैं। लड़के वाले का परिवार साक्षात नर्क भोग रहा है। लड़कियां ऐलिमोनी ले दूसरी, तीसरी शादी से परहेज नहीं करतीं। यह कैसा समाज है? यह लड़कियों की कैसी रक्षा है? इकलौता लड़का या दूसरा, तीसरा ही सही आत्महत्या की कगार पर है।

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं)

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Kamlesh Jain

कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और देश में कई बड़े केस लड़ चुकी हैं। चार दशकों से भी ज्यादा समय से कमलेश जैन देश के तकरीबन सभी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में मुकदमो की पैरवी कर चुकी हैं। महिलाओं के अधिकार और कैदियों को लेकर वो हमेशा मुखर रही हैं। कमलेश जैन नीतिरीति के लिए अपने विचार और अनुभव लिखती रही हैं।

2 Comments

  1. Roop Singh Chandel on

    महत्वपूर्ण आलेख। आज लड़कियां कम,लड़के अधिक उत्पीडित हैं। कई आत्महत्या करने को विवश हैं और कुछ ने की भी। कानून में पुन: संशोधन की आवश्यकता है। एसे परिवारों और लड़कियों को सजा मिलनी चाहिए।

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