समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड (UCC) की चर्चा अक्सर होती है और थम जाती है। यहां ‘समानता’ का अर्थ है- शादी, तलाक, वारिस और गोद लेना, इनमें संपूर्ण भारत भर में, सभी धर्मों में, एक कानून का होना।
संविधान की प्रस्तावना में हम व्यक्तिगत सम्मान के साथ भ्रातृत्व एवं राष्ट्र की एकता का समावेश चाहते हैं। 1976 में हमने प्रस्तावना को बदल कर कहा- ‘व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए” (पहले था भारत की अखंडता)।
पूर्व चीफ जस्टिस गजेन्द्र गडकर ने कहा, एक नए ‘सेकुलर सोसल आर्डर’ को प्राप्त करने के लिए एक कॉमन सिविल कोड होना आवश्यक है। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने 5 जजों वाली बेंच में बैठ शाहबानो के मुकदमे में कहा (1985 SC) सीसीसी जरूरी है, देश की संप्रभुता को बचाने के लिए। हर समुदाय के लिए विभिन्न कानून, देश को एक होने से रोक सकते हैं। 1995 में भी सरला मुद्गल केस में UCC की बात की गई है। इसके न होने का असर सबसे ज्यादा स्त्रियों की स्वतंत्रता, उनके सुख-दुख पर पड़ता है। भारत में सीसीसी को बनाना ही चाहिए, खासकर स्त्रियों के दृष्टिकोण से। एक कानून नहीं होने से उन्हें काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। स्त्रियों के साथ धार्मिक एवं कानून की दृष्टि से भी भेदभाव है।
एक दृष्टि विभिन्न कानून के आधार पर स्त्रियों की स्थिति
1. मुस्लिम पुरुष बहु विवाह करते हैं जबकि हिंदू, ईसाई एवं पारसी एक विवाह।
2. मुस्लिम पुरुष अदालत के अलावा खुद भी एक पक्षीय तलाक दे सकते हैं जबकि हिंदू, ईसाई, पारसी पुरुष सिर्फ अदालत द्वारा और वह भी कुछ निश्चित आधार या आधारों पर।
3. एक मुस्लिम पुरुष कभी भी, बिना किसी कारण स्त्री को तलाक दे सकता है। पर एक हिंदू, ईसाई और पारसी पत्नी को किसी खास कानूनी कारण से और अदालत से ही।
4. मुस्लिम कानून में यदि पति अपने धर्म का त्याग कर देता है तो मुस्लिम विवाह खत्म हो जाता है पर पत्नी के धर्म त्याग करने पर विवाह नहीं खत्म होता।
5. हिंदू धर्म के अंदर पति-पत्नी किसी के भी धर्म त्याग करने पर विवाह खत्म नहीं होता। जबकि धर्म त्याग नहीं करने वाला पक्ष, धर्म त्याग करने वाले पर मुकदमा कर सकता है।
पारसी लॉ के अंतर्गत भी यदि एक पक्ष अपना धर्म त्याग देता है तो दूसरा पक्ष विवाह विच्छेद कर मुकदमा कर सकता है पर विवाह खुद ब खुद खत्म नहीं होता।
ईसाई कानून में भी किसी के भी द्वारा धर्म परिवर्तन ईसाई विवाह पर फर्क नहीं डालता। पर यदि धर्म परिवर्तन पति करता है और वह दोबारा विवाह करता है तो पत्नी उस पर मुकदमा कर सकती है।
मुस्लिम लॉ में एक तलाकशुदा पत्नी को इद्दत के दौरान भरण-पोषण का अधिकार है, पर दूसरे धर्मों में पत्नी को तब तक भरण-पोषण का अधिकार है जब तक कि वह दोबारा विवाह न करे।
हिंदू विवाह अधिनियम तथा पारसी विवाह अधिनियम में पति-पत्नी दोनों ही ‘निर्वाह धन’ (एलिमोनी) पा सकते हैं, मुकदमे की शुरुआत से भी और मुकदमे के बाद भी, और इसकी कोई सीमा नहीं है। पर भारतीय तलाक कानून (इंडियन डिओर्स एक्ट) के अंतर्गत सिर्फ पत्नी को निर्वाह धन मिलता है और यह पति की एवरेज नेट इनकम का पांचवां हिस्सा ही है। हिंदू धर्म के अंतर्गत सिर्फ पत्नी को यह अधिकार है कि बाल विवाह होने पर, यौन संबंध स्थापित होने पर भी, 15 वर्ष की होने पर, लेकिन 18 वर्ष की उम्र से पहले, विवाह अमान्य करने की याचिका कोर्ट में दायर कर सकती है पर पति को यह अधिकार नहीं।
मुस्लिम कानून में, पति-पत्नी दोनों को इस अवस्था में विवाह भंग करने का अधिकार है पर यह तब, जब उनमें यौन संबंध नहीं हुआ हो। ईसाई एवं पारसी कानूनों में ऐसा प्रावधान नहीं है। वहां ऐसे विवाह अमान्य हैं। मुस्लिम कानून में एक बार तलाक होने पर पति-पत्नी दुबारा विवाह नहीं कर सकते, जब तक पत्नी किसी और से विवाह कर उससे यौन संबंध न स्थापित करे, पर दूसरे कानूनों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
ईसाई कानून में पत्नी पति को तलाक दे सकती है तब जब पति किसी और के साथ संबंध रखने (एडल्टरी) के अलावा दूसरे दोषों जैसी क्रूरता, छोड़कर चले जाना आदि गलतियों से भी ग्रसित हो। इस कानून में पति की एडल्टरी सिर्फ न्यायिक अलगाव (ज्यूडिसियल सेपरेशन) का आधार है। हिंदू और पारसी लॉ में ये कारण तलाक और ज्यूडिसियल से परेशन दोनों के आधार हैं।
हिंदू एवं पारसी लॉ में ज्यूडिसियल से परेशन की डिक्री होने के बाद या वैवाहिक संबंधों की पुनर्वापसी की डिक्री होने के बाद भी यौन संबंध न होने पर यह तलाक का आधार भी है। ईसाई कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।
हिंदू, ईसाई और पारसी कानून में आपसी सहमति से तलाक लेने का अधिकार है, पर मुस्लिम लॉ में नहीं। यह भेदभाव केवल धर्म के आधार पर नहीं है बल्कि सामाजिक आधारों पर भी है। सवाल है विभिन्न समुदाय की स्त्रियां अलग-अलग विचारों के आधार पर क्यों भेदभाव की शिकार हों। स्त्रियों पर ही धार्मिक, सामाजिक, कानूनी भेदभाव हो, उन्हें दीनहीन रखा जाय। वे क्यों नहीं कानून संविधान की दृष्टि से एक हों, सम्माननीय हों, उन्हें सब अधिकार हो- पढ़ने का, नौकरी करने का, संपत्ति धारण करने का, गोद लेने का, अकेले रहने का या वह सब जो पुरुष को सहज ही प्राप्त है।
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार है )