वकालत में हमेशा कानूनी मुद्दों से बात नहीं बनती। कारण है न्यायाधीश भी आखिर हमारे आपके जैसे होते है। इसी परिवेश समाज से आते हैं। जब बातें सीधी तरह समझाई नहीं जा सकतीं तो उन्हें व्यवहार ज्ञान समझाया जाता है।
जैसे रामकृष्ण परमहंस जी पढ़े लिखे नहीं थे, वे अपनी गूढ़ बातें, साधारण रोज़मर्रा की घटनाओं, व्यवहार से इतनी अच्छी तरह समझा देते कि कोई भी व्यक्ति उसे समझ ही जाता। जैसे उन्होंने कहा- एक किसान ने सारा दिन गन्ने के खेत में पानी सींचने के बाद जाकर देखा खेत में बूंद भर भी पानी नहीं पहुंचा है। खेत में कुछ बड़े- बड़े बिल थे और सारा पानी उन बिलों से होकर दूसरी ओर बह गया था। अत: उसका सींचना व्यर्थ हो गया।
इसी तरह एक सब- ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट श्री इंदुभूषण द्विवेदी जी झारखंड के चाईबासा में पोस्टेड थे। तीन महीनों तक दस्त होते रहने के कारण उनकी तबीयत काफी खराब हो गई। उन्होंने अपने जिला जज को अवगत किया और प्रार्थना की कि उचित इलाज के लिए उन्हें रांची भेजा जाए, वरना उनकी जान भी जा सकती है।
जिला जज ने उनकी प्रार्थना स्वीकृत कर ली।
इसके बाद इस प्रार्थना पत्र को स्वीकृति के लिए जिला जज द्वारा उच्च न्यायालय भेजा गया। उच्च न्यायालय ने इस प्रार्थना को अस्वीकार कर कहा, यह कारण पर्याप्त नहीं है, कृपया चाईबासा अविलंब ज्वाइन करें। इस पर इंदुभूषण द्विवेदी ने जवाब दिया। ये जवाब अंग्रेजी था और इसमें उन्होंने कहा, मैं इस merciless आदेश का पालन नहीं कर सकता, कारण मेरा स्वास्थ्य अत्यंत खराब है और मुझे सबसे अच्छे इलाज की जरूरत है, जो रांची में ही उपलब्ध है। द्विवेदीजी के शब्द थे Merciless direction of the High Court.
उच्च न्यायालय ने कहा- merciless शब्द Derogatory (अपमानजनक) है,ये अवज्ञाकारी (उधृत), गैर अनुशासित हैं और एक न्यायिक अधिकारी के लिए गलत आचरण के समान है।
और ये शब्द इंदुभूषण जी के लिए जी का जंजाल बन गए। झारखंड उच्च न्यायालय में फाइल की गई रिट (Writ petition) भी काम नहीं आई। कुछ और छोटी मोटी शिकायतें भी इस अफसर के विरुद्ध थी पर उन्हें साबित हुआ नहीं पाया गया। द्विवेदी जी की नौकरी चली गई। सिर्फ आधी पेंशन का ही आदेश हुआ।
एक दिन द्विवेदी जी सर्वोच्च न्यायालय में घूम रहे थे। मैंने उन्हें पहचान कर बुलाया, उनसे बात की। उन्होंने कहा अब कुछ नहीं हो सकता। यह भी बताया कि कुछ रिटायर्ड जजों एवं सीनीयर वकीलों ने उन्हें सलाह दी कि सर्वोच्च न्यायालय ना आए। जो भी मिला है वो भी चला जाएगा। मैंने उनसे कहा, मुझे यह केस करने दीजिए, एक आइडिया है। भले ही फीस मत दीजिए,खर्चा के तौर पर सिर्फ 5000 रुपए दीजिए फाइलिंग के लिए। बड़ी मुश्किल से कई बार कहने के बाद उन्हें महीनों बाद मुझे मुकदमा फाइल करने की अनुमति दे दी। मैंने सर्वोच्च न्यायालय में केस फाइल किया देश चीफ जस्टिस और एक और जज बेंच में थे। चीफ जस्टिस ने पूछा- आपको आधी पेंशन मिल तो गई है, अब और क्या चाहिए? What more do you want, मैंने कहा I want something more, my full pension and remaining job. फिर मैंने कोर्ट के सामने ये दलील दी कि आप लोग अंग्रेजी स्कूल से पढ़े हुए है। आपकी अंग्रेजी अच्छी है। हमारे जैसे लोग हिंदी स्कूल सरकारी स्कूल में पढ़े हैं जहाँ की अंग्रेजी इतनी अच्छी नहीं होती। हम पहले हिंदी में सोचते हैं फिर उसका अनुवाद अंग्रेजी में करते हैं।
यहाँ भी हिंदी में merciless और Cruel का अर्थ है कठोर। हम हिंदी में भगवान और प्रेमी को, बात न मानने पर कहते हैं कि वो काफी कठोर हैं, वे बुरा नहीं मानते। वैसे भी उच्च न्यायालय को उसी तरह उच्च और प्रिय मान उसने कठोर का अनुवाद merciless किया है। उसका इरादा वैसे भी उच्च न्यायालय की अवमानना करना या धृष्टता करना नहीं था। निचली अदालतों के अफसर आपके बच्चे जैसे ही है, इस छोटी सी गलती पर अभिभावक की तरह उन्हें माफ़ करे और इसका अर्थ का अनर्थ नहीं निकाला जाए।
बस केस सुनवाई के मंजूर (admit) हो गया और बाद में आखिरी सुनवाई(Final Hearing)में उन्हें Full job भी मिल गई और पेंशन भी मिल गया। (Indubhushan Dwivedi VS Jharkhand, civil appeal no- 4888/2010)
इससे एक बात साफ होती है गलत शब्दों के चयन की वजह अर्थ का अनर्थ हो जाता है और चाहे अदालत हो या समाज, शब्द हमेशा चुनकर ही लिखना या बोलना चाहिए, नहीं तो कोई भी व्यक्ति इंदुभूषण द्विवेदी जी की तरह मुश्किल में फंस सकता है।
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं)