अप्रैल 1930 में जवाहर-लाल नेहरू नैनी जेल में बंद थे। जेल में निवास की स्थितियां तब भी नरक जैसी थी, कारण भारतीय ग़ुलाम पहले थे और मनुष्य बाद में।
लीगल सिस्टम तब जो था वह अपर्याप्त था और अवैज्ञानिक था । जिनके ऊपर मुक़दमा चलाया जाता वे ‘थोड़े कम’ मनुष्य थे।
आजादी के 75 साल बीत चुका है लेकिन लीगल सिस्टम बदला नहीं है। कमोबेश वही है। नेहरू खुद जेल में थे, कई नेता जेल में रह चुके हैं पर क़ानून को,अपराधियों के लिए बदला नहीं गया ग़रीब को असहाय को आज भी न्याय नहीं मिलता यहां अपराधी को ईनाम देने जैसा है तभी तो बंगाल सरकार आज भी राय, घोष आदि को बचाने में लगी है। जगह जगह यही हो रहा है।
साल 1983 में जब मैं पटना हाईकोर्ट में वकालत कर रही थी आपराधिक क़ानून के अंतर्गत, दो मुक़दमे मेरे सामने अख़बारों के चेहरों से सामने आए। उसमें से एक था बोका ठाकुर उर्फ़ दसई ठाकुर। वह 37 वर्षों से दुनिया के सबसे पुराने अंडर ट्रायल prisoner के बतौर दर्ज था। 16 वर्ष की अवस्था में अपने पड़ोसी के क़त्ल के जुर्म में क़ैद हुआ था 1945 में। कत्ल का कारण था, दसई के पास एक गाय थी जिसे वह अपना ‘सबकुछ’ समझता था। उसी को पड़ोसी ने हसुए से काट दिया था। गाय का जुर्म था-पड़ोसी के यहाँ हरी भरी घास चर लेना। दसई ने जैसे को तैसे की सजा दी। वो सिर्फ़ 16 साल का था लेकिन भावनाओं से लबरेज़।
उसका एक यह क़सूर था। यह क़सूर था कि वह बहुत अच्छा बढ़ई था। वह भारत के सबसे अच्छे ताबूत बनाता था और उसके बनाए ताबूत सबसे ज़्यादा क़ीमत पर बिकते थे। वह एक जेल से दूसरे रेल हस्तांतरित होता रहा- ताबूत बनाता रहा। कोर्ट में तारीख़ पर तारीख दी जाती रही। कहां तक रखा जाता बिना ट्रायल के। एक नायाब तरीक़ा ढूंढा गया उसे जेल में रखने के लिए। उसे गूँगा बहरा तो बनाया ही गया, पागल भी बना दिया गया। इसी बिना पर उसका तबादला रांची के मेंटल हॉस्पिटल में कर दिया गया। ना तो घर से कोई खोज खबर लेना वाला था और मेंटल हॉस्पिटल में कोई जाता ही क्यों ?
पुलिस और कोर्ट दोनों के मजे हो गए। 37 वर्ष बिना ट्रायल के ही गुज़र गए। किसी सिरफिरे अख़बारनवीश को पता चला तो ये खबर अख़बार में छप गई। वहाँ मैंने और मेरे भाई ने ख़बर पढ़ी। सोचा इसके लिए कुछ करते हैं। वकालत करते अभी एक दशक भी नहीं हुआ था,एक petition उसकी रिहाई के लिए पटना हाईकोर्ट में डाला। पहला petition ख़ारिज हो गया। दूसरा PIL (public interest litigation) डाला और उसको रिहा करा दिया।
ऐसे ही दूसरा केस था 35 वर्षों से जेल- 16 वर्ष रिहाई के साथ साथ रुदल साहा की। इसे भी निकाला जेल से । दूसरी prayer थी, मुआवज़ा भी दीजिए, हाईकोर्ट से ही- लोअर कोर्ट क्यों जाएं, कसूर हमारा नहीं – Judiciary, jail प्रशासन का है। वह भी रिहा हो गया। मुआवजा सुप्रीम कोर्ट से मिला, 35 हजार रुपए।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1983 में जस्टिस रंगनाथ मिश्र ने कहा- “यह कोई अकेला मुकदमा नहीं है, जहां हमें चिंता हो रही है । बिहार में पूरे जेल प्रशासन में घोर अंधेरा है। भागलपुर जेल में अभी अंखफोड़वा केस गुजरा ही है। उस भयानक मुकदमे ने हमारी आंखें नहीं खोली हैं। शायद एक ‘हरक्यूलिस’ को ढूंढना है, जो सिस्टम की धुलाई करेगा। दो नदियों की दिशा एक और मोड़कर, पवित्र गंगा से नहीं। हालांकि हम चाहते हैं कि राज्य के उच्चाधिकारी इस ओर अपना व्यक्तिगत ध्यान देंगे। जेलों के प्रशासन की निद्रा तोड़ने में और घनघोर अन्याय को खत्म करने में”
पर क्या देश के किसी भी जेल प्रशासन, कोर्ट, पुलिस में बदलाव आया है पिछले 41 वर्षों में। वर्ष 1990 का बहुचर्चित केस, अजमेर का सीरियल रेप, धोखा, जाल में फंसाने का मुकदमा जिसमें अब 32 वर्षों के बाद फैसला आया है। यह पॉक्सो एक्ट का केस है, जहां न्याय का पहिया तेजी से घूमता है- कारण मामला बच्चों का है। 1989 में दो बच्चों के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाया जाता है। 2 पुरुष और 100 से भी ज्यादा स्त्रियां हैं, जिनमें बच्चियां भी हैं। इन घटनाओं की अश्लील और गंदी रिपोर्टिंग लोकल अखबारों में की गई। केस को दबाने की तमाम कोशिशों के बावजूद पहला एफआईआर (FIR) मई 1992 में हुआ और पहली चार्जशीट सितंबर 1992 में।
ट्रायल कोर्ट, 12 अभियुक्तों को 1994 में उम्रकैद की सज़ा देता है और फिर उसे कम कर देता है हाईकोर्ट वर्ष 2001 में, जिसे 10 वर्षों में सर्वोच्च अदालत परिवर्तित कर देता है 2011 में। (क्या यह मुकदमा सज़ा कम करने का लगता है ?)
फिर 2003 में एक अलग चार्जशीट फाइल होती है बाकी के 6 अभियुक्तों के लिए। अब एक ट्रायल शुरु होती है सारे अभियुक्तों के खिलाफ साल 2018 में।
2020 में पहली बार प्रोसेक्यूशन के सामने चुनौती आती है, कैसे पीड़ितों को राजी करें गवाही देने के लिए।
कितने ही पीड़ित समन लेते ही नहीं, कितने ही पीड़ित प्रोसेक्यूशन के खिलाफ हो जाते हैं अपने मुकदमों के उलट बयान दे हॉस्टाइल यानी- अपने ही खिलाफ गवाही दे-अभियोजन के दुश्मन हो जाते हैं। कौन 1989 के मुकदमें में दोबारा 2000 में आए मुंह काला करवाने। सच कहते हैं, आपराधिक कानून का सच उसका समय है। जितना जल्दी केस सुना जाएगा, लिखा जाएगा उतने ही साक्ष्य सच्चे होंगे या देरी के साथ खत्म होते जाएंगे।
अब 20 अगस्त 2024 को, घटना के 32 साल बाद 6 अभियुक्तों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई है।
यह अजमेर शरीफ का मामला है जहां दरगाह है, पुष्कर लेक है, एक लड़का जो कई पुरुषों की निगाह पर चढ़ जाता है। ब्लैकमेल की डर से अपनी ही गर्लफ्रेंड, जो नाबालिग है को पुरुषों के ग्रुप को सौंप देता है और इस तरह से खुद को बचाता है। फिर यह सब शगल बन जाता है। ग्रुप के ग्रुप बहलाए, फुसलाए, डराए जाते हैं। शिकार बनाए जाते हैं, महिलाएं बच्चियां, बहकाए जाते हैं और यह अंधा, घिनौना अपराध चल निकलता है।
फिर प्रशासन, पुलिस, कोर्ट भी इनकी इशारों पर चलते हैं और न्याय, भ्रष्टाचार लालच की राह चल victims को अनदेखा करते है।
कानून, न्याय जस का तस है, सच शर्मिंदा है या मर गया है।
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं)