एक समय था जब भारत में संयुक्त परिवार होते थे। दादा-दादी, माता-पिता, बेटे-बहू, पोते-पोतियां सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाते, खुश और स्वस्थ रहते थे। छोटी-मोटी शिकायतें अवश्य होतीं पर वे सुलझा ली जाती आराम से। इसे खींचा नहीं जाता, अंतिम तक बदला लेने की प्रवृत्ति नहीं थी।
पर आज माहौल अलग है। पति-पत्नी की आपस में नहीं बनती, बच्चों पर किसी का अनुशासन नहीं चलता। एकल परिवार है, उसमें भी मेल नहीं है। आये दिन पति-पत्नी अदालत का रुख करते हैं। बच्चे कहां जाएं, वे कैसे बड़े हो, शिक्षित हों, माता के पास रहे या पिता के पास समझ नहीं आता।
बच्चों से भी बुरी दशा तो उनके दादा-दादी की है। उन्हें हजार तिकड़मों से, उनके ही घर में खाना नहीं मिलता, दवा नहीं मिलती, उनके ही घर से उन्हें कभी भी निकाल दिया जाता है। वे सड़कों पर, किसी के घर में नौकर-चाकर सा जीवन बिताते हैं, दुखों से जल्दी मर जाते हैं।
इसी कारण भारत सरकार ने सन् 2007 में भरण-पोषण तथा कल्याणकारी कानून, माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिकों के लिए बनाया। जिससे कि वृद्ध माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक जिन्हें जिंदगी की शाम में, खासकर विधवा स्त्रियों को अपना जीवन अकेला, बेसहारा न गुजारना पड़े। उनकी शारीरिक और आर्थिक हालत अब ऐसी नहीं रहती कि वे अकेले बिना मदद के जीवनयापन कर सकें।
यह समस्या धीरे-धीरे एक सामाजिक चुनौती बन चुकी है, जिसका हल निकालना आवश्यक है। इसके लिए पहले ‘कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर” (CrPC) में 1973 से धारा 125 लाई गई। पर इससे काम नहीं चला तो इस एक्ट को लाना पड़ा।
इसके अनुसार ‘’बच्चों” का अर्थ है- बालिग बेटा, बेटी, पोता तथा पोती। भरण पोषण का अर्थ है- खाना, कपड़े, मकान, दवाएं तथा इलाज। माता-पिता का अर्थ है- जन्मदाता (माता-पिता), गोद लेने वाले, सौतेले माता-पिता भले ही वे वरिष्ठ न हो। संपत्ति का अर्थ है- कैसी भी संपत्ति, चल-अचल, खुद की या पुरखों की कमाई द्वारा प्राप्त, स्थाई, अस्थाई जिससे व्यक्ति कुछ प्राप्त करता है। इसी प्रकार, एक वरिष्ठ व्यक्ति जिस के संतान न हो पर उसका कोई उत्तराधिकारी हो, जिसे संपत्ति मिलेगी तो इन सबकी जिम्मेदारी है अपने वरिष्ठ लोगों की उचित देखभाल, भरण-पोषण सम्मान के साथ, उनकी संतुष्टि के अनुसार प्यार से करे।
जिनके पास संपत्ति न हो उनके बच्चों का भी कर्तव्य है कि वे उनका उचित भरण-पोषण करें क्योंकि उन्होंने उनको तो जन्म दिया, पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया और देखभाल की।
ऐसा जब नहीं होता तो वरिष्ठ लोग कानून की धारा 5 में भारण-पोषण अधिकार याचिका- वे खुद या किसी और की तरफ से सीनियर सिटिजन ट्रीव्यूनल/डीएम/डिप्टी कमिश्नर ऐरिया के यहां फाइल कर सकते हैं। यह एक्ट किसी भी दूसरी अदालत के होते हुए भी विशेष अधिकार रखता है। इससे द्वारा वरिष्ठ नागरिक को बच्चों द्वारा भरण-पोषण का अधिकार है। बच्चे अगर उन्हें तंग करते हैं तो ट्रिव्यूनल को यह अधिकार है कि वे ऐसे बच्चों को घर से निकाल बाहर करें।
जुलाई 2023 को दिल्ली उच्च न्यायालय से आशीष रामदेव तथा अन्य के मुकदमे में फैसला आया है कि वरिष्ठ माता-पिता को बेटे-बहू द्वारा अपने ही घर से बेदखल नहीं किया जा सकता। उन्हें सिविल कोर्ट जाकर न्याय की गुहार नहीं लगानी। ट्रिब्यूनल के रूल्स 2016 के अनुसार बच्चों से घर खाली करवाया जा सकता है, भले ही वरिष्ठ माता-पिता और बच्चों के बीच संपत्ति का विवाद चल रहा हो।
ऐसा ही एक मुकदमा हाल में फाइल हुआ है ट्रिब्यूनल में, जिसमें शादीशुदा बेटी अपने बेटे और भाई के साथ मिलकर अपनी मां को मार चुके हैं- डायबिटिज की दवा और खाना न देकर, वृद्धावस्था में मां को मारने के बाद, 75 वर्षीय पिता को अपनी बनाई (पिता द्वारा) संपत्ति से छह महीने पहले बाहर खदेड़कर।
आम अदालतों के मुकाबले ट्रिब्यूनल के कई फायदे हैं। मुकदमा फाइल करने के बाद कम से कम ढ़ाई से तीन महीने लगते हैं, उसका असर दिखने में। एक महीना तो यह जांच करने में लग जाता है कि जो तथ्य पिटीशन में बताया गए हैं, वह सच है या नहीं । फिर जो बच्चे माता पिता हैं, वरिष्ठ नागरिकों के प्रति अपराध या अन्याय करते हैं,उन्हें नोटिस दी जाती है।
उन्हें अपना पक्ष रखने का अवसर दिया जाता है, कम से कल 3 हफ्ते। फिर अधिकारी की व्यस्तता के अनुसार एक तारीख पड़ती है जिसपर हाजिर हो, दोनों पक्ष अपनी बात अदालत के सामने रखते हैं।
इस अदालत में और दूसरी अदालतें जिसमें सिर्फ न्यायिक पदों पर अधिकारी होते हैं, उनमें फर्क उतना है कि यहाँ तथ्यों की जांच पहले ही हो जाती है और दोनों पक्षों को बाद में सुना जाता है ताकि फैसले में भूल भी ना हो और फैसला जल्दी आएँ। पर रेग्युलर अदालतों में पहले सुनवाई होती है, फिर जांच।
इस ट्रिब्यूनल के फैसले चूंकि गुड फेथ (Good Faith) यानी ईमानदारी से लिए जाते हैं तो इन फैसलों को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जाती।
इस अदालत के आदेश पारित होने में कोई कठिनाई आने पर राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह इस ऑफ़िशियल गजट में प्रकाशित कर वह प्रोविजन ही बदल गए हैं, जिसके कारण आदेश पारित होने में कठिनाई हो रही है।
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं)