हाल फिलहाल के दिनों में देश भर से कुत्तों के काटने की कई घटनाएं सामने आई हैं। कहा जा रहा है कि देश भर में आवारा और बीमार कुत्तों की संख्या लगातार बढ रही है। केरल सरकार ने पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है कि जो कुत्ते आक्रामक, पागल या बीमार हो रहे हैं उन्हें मार दिया जाना चाहिए ताकि लोगों को कुत्ते के काटने से बचाया जा सके।
जाहिर है, पशु अधिकार कार्यकर्ता इस तरह के किसी भी कदम पर रोक लगवाने के अदालत पहुंचे हैं और सुझाव दे रहे हैं कि पहले अन्य अधिक मानवीय तरीकों का पता लगाया जाना चाहिए ना कि सीधा कुत्तों की हत्या कर दी जाए।
विडंबना यह है कि इन कार्यकर्ताओं ने पिछले कई वर्षों में समस्या से निपटने के बजाय और अधिक मुश्किल कर दिया है। ज्यादा मानवीय तरीकों का हठपूर्वक विरोध करके इस मानव-पशु संघर्ष को बदतर बना दिया है। पशु अधिकार की बात करने वालों का तर्क है कि भले ही स्थानीय निवासियों को समस्याएं हों, इसके बावजूद जानवरों को जहां हैं वहां रहने दिया जाए।
पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के दबाव में सरकार के अदूरदर्शी नियम वर्तमान में किसी भी आवारा, रोगग्रस्त या स्वस्थ जानवर को उनकी जगह से विस्थापित करने की अनुमति नहीं देते हैं।
पशु प्रेमियों का तर्क है कि कुत्ते क्षेत्रीय जानवर हैं और उन्हें एक नई जगह पर भेजना सख्त मनाही होनी चाहिए क्योंकि उन्हें दूसरे इलाके के अन्य कुत्तों के साथ संघर्ष करना पड़ता है, उन्हें भोजन के लिए मुश्किल होती है क्योंकि उस इलाके के कुत्ते उन्हें खाने नहीं देते हैं और ऐसे में जानवर की मौत हो जाती है। उनका तर्क ये भी है कि जब भी जानवरों की नसबंदी की जाती है, तो भी उन्हें अपने मूल आवास यानी उसी इलाके में वापस करना चाहिए जहां से उन्हें ले जाया गया था।
दूसरी जगह पुनर्वास असहाय जानवरों को मानव रोष के जोखिम में डालता है, खासकर जब उनमें से कुछ जानवर आक्रामक हो जाते हैं और फिर इंसानों को काटते हैं। सड़कों और भीड़भाड़ वाले मानव इलाकों से सभी आवारा लोगों को हटाने के लिए एक मजबूत नैतिक और कानूनी तर्क है.. इसके पीछे तर्क है कि इससे न केवल कुछ क्षेत्रों में उग्र मानव-पशु संघर्ष की तीव्रता कम होगी बल्कि इन असहाय जानवरों के जीवन और गरिमा के अधिकार को सुनिश्चित भी होगा।
सरकार को पशु प्रेमियों को प्रेरित करना चाहिए कि वो छोटे छोटे कस्बे के स्तर पर, पशु आश्रय स्थापित करें और स्थानीय लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि आक्रामक या पागल जानवरों को इन पशु आश्रयों में रखें। ऐसा करने से मानव और जानवर के बीच होने वाले संघर्षों को कम करने में एक बड़ा और सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
शहरी आवासीय जगहों में, Resident Associations को आग्रह करके इस तरह के पशु आश्रयों को चलाने के लिए किया जा सकता है। इसमें राज्य सरकार की भागीदारी होनी चाहिए।
यह पशु अधिकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बीच दुश्मनी के चक्र को तोड़ देगा और आवारा लोगों के लिए नसबंदी और टीकाकरण योजनाओं को आगे बढ़ाने जैसे अन्य उचित समाधानों को देखने के लिए मंच स्थापित करने में मदद करेगा।
विशेषज्ञों का कहना है कि नसबंदी तभी काम करती है जब 70 प्रतिशत आवारा कुत्तों की नसबंदी की जाती है। सरकारी विभाग के आंकड़ों की माने तो नसबंदी के आंकड़े सिर्फ 10 प्रतिशत पर है। सरकारी आधिकारियों पर कार्रवाई करने का दबाव बनाया जाना चाहिए।
किसी भी जानवर को सड़क पर आवारा छोड़ देने से बेहतर है या फिर उन्हें हटाकर कहीं और भेज देने से बेहतर ये होना चाहिए कि लोगों को गोद लेने के लिए प्रेरित करना चाहिए। जानवरों की हत्या करने के विरोध में रहने वाले लोगों और जानवरों से प्रेम करने वाले लोगों को एक सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए और उन्हें आगे आना चाहिए ताकि उन्हें समय रहते बचाया जा सके । ज़रुरत कानून या नियम की नहीं, ज़रुरत इच्छाशक्ति की है।
एक और अहम बात है कि भारत में अधिकतर लोग क्रूर नहीं हैं। मनुष्य और जानवर सड़कों पर खुशी से सह-अस्तित्व में रहते हैं । कई लोग आवारा कुत्तों, बंदरों, कबूतरों और मवेशियों को अपनी व्यक्तिगत आध्यात्मिक प्रतिबद्धता के हिस्से के रूप में खिलाते हैं। आमतौर पर आपको देश की हर सड़कों पर लोग मिल जाएंगे जो अपने ग्रहों को शांत करने के लिए जानवरों को खाना खिलाते हैं ।
समस्या तब आती है जब एक आक्रामक या पागल या रोगग्रस्त आवारा किसी इंसान को काटता है। वैसे में ये समस्या और विकराल तब हो जाती है जब पशु प्रेमी जानवर को हमला करने के लिए उकसाते हैं और इसकी जिम्मेदारी पीड़ित पर ही थोप देते हैं, ये समाधान नहीं है।
जिस व्यक्ति को जानवर ने काट लिया उसी पीड़ित व्यक्ति को जानवर के प्रति क्रूर होने का ठप्पा लगा दिया जाता है और उसे सामाजिक रूप से शर्मिंदा किया जाता है। उपर से जब पीड़ित रेवीज का इंजेक्शन लगवाने के लिए अस्पताल पहुंचता है तो पता चलता है कि इंजेक्शन की कमी से माहौल और डरावना हो जाता है.. इंसान के मन ये डर रहता है कि समय रहते अगर इंजेक्शन ना लगे तो इंसान की जान भी जा सकती है।
दूसरी समस्या ये भी होती है कि अगर पीड़ित पशु पर हिंसक होता है तो पशु प्रेमियों द्वारा दायर किसी भी झूठी शिकायत से भी लड़ना पड़ता है और कभी कभी तो ये शिकायतें ऐसी हो जाती हैं कि लोग इसमें छेड़छाड़ और बलात्कार की धाराओं को भी जोड़वा देतें हैं। दिल्ली एनसीआऱ की बात करें और खासकर नोएडा, ग्रेटर नोएडा की तो एक महिला डॉग फीडर नियमित रूप से पुलिस में कॉल करती हैं और सोसाइटी के आरडब्ल्यूए(RWA) और एओए (AOA) के पुरुष पदाधिकारियों के खिलाफ छेड़छाड़ और बलात्कार के आरोपों पर शिकायत दर्ज करती हैं। बालात्कार और छेड़छाड़ की धाराएं पशु क्रूरता कानूनों और नियमों से पूरी तरह से अलग हैं।
इस तरह के ब्लैकमेल से दोनों पक्षों के बीच बातचीत की किसी भी संभावना को समाप्त कर दिया जाता है और कोई उचित समाधान कभी भी काम नहीं किया जा सकता है।
नोएडा और ग्रेटर नोएडा में एक बड़ा पेशेवर मध्यम वर्ग का घर हैं जो लोग सोसाइटियों में रहते हैं, वहां ऐसा देखा जा रहा है कि निवासियों ने अपने दम पर खतरे से छुटकारा पाने की कोशिश में कानून को अपने हाथों में ले लिया है।
यहां अदालतों की भी भूमिका आती है। देश की अदालतों को हर जगह आवारा लोगों को खिलाने के मुद्दे से निपटने में नैतिक दुविधा को भी संबोधित करना होगा।
दिल्ली हाईकोर्ट ने 28 फरवरी, 2022 को एक सर्कुलर जारी कर सभी को कोर्ट परिसर के अंदर आवारा बंदरों को नहीं खिलाने का आदेश दिया था।
कुल मिलाकर, किसी भी चीज को देखने के लिए दो अलग अलग मानक नहीं हो सकते।
जानवरों का आक्रामक होना और बीमार होना एक बड़ी लेकिन ऐसी समस्या है जिसे मानवीयता से देखा जा सकता है और इसके समाधान के लिए पूरे समाज को एक साथ आना पड़ेगा, साथ ही लोगों में एक दूसरे के प्रति विश्वास पैदा करना पड़ेगा तभी जाकर आगे दिक्कत नहीं होगी।