(कमलेश जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)
हमें पता है कि कार्यालय या न्यायालयों का कामकाज अपनी भाषा में हो तो काफी समस्याएं कम हो सकती हैं लेकिन विडंबना है कि भारतीय उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा आज भी अंग्रेजी ही है। अभी देश के न्यायालयों में मुकदमो का जो अंबार लगा है उन्हें निबटाने में 100 से 150 वर्ष लग सकते हैं। नए मुकदमे की तो बात ही न की जाए तो अच्छा है। एक-एक मुकदमे के निपटारे में कई दशक लग जाते हैं। इसके कई कारण हैं, जैसे न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया का पारदर्शी न होना, कुछ ही लोगों के हाथों (सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा) उनका चुना जाना, चयन में किसी प्रतियोगिता का न होना आदि। पर सबसे अहम कारण है न्याय की सारी प्रक्रिया का एक विदेशी भाषा अंग्रेजी में निष्पादित होना। अंग्रेजी एक कठिन भाषा है जिसे अच्छी तरह से सीखने में 10 से 15 वर्ष लग जाते हैं फिर भी न्याय की भाषा जानने के लिए किसी को 3 से 5 वर्षों का कोर्स करना पड़ता है। जो लोग अंग्रेजी माध्यम से पढे लिखें हैं या दूसरे क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त हैं, उन्हें भी कानून की जानकारी नहीं होती।
इधर देश की करीब 50 प्रतिशत जनता हिंदी भाषी है तथा शेष 30-40 प्रतिशत जनता हिंदी समझ सकती है और सीखना चाहे तो 2-3 वर्षों में भाषा पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर सकती है क्योंकि उसके चारो तरफ का वातावरण- बातचीत, फिल्में, टी.वी आदि हिंदी सीखने में सहायक होती है। गैर हिंदी भाषी लोगों को अपनी मातृभाषा का आधार भी हिंदी की तरह संस्कृत आधारित है अत: वे कम समय में हिंदी पर अधिकार प्राप्त कर सकते हैं। रही बात इंटरनेट की तो इस माध्यम में आज तुरंत अनुवाद की सुविधा होने पर भाषा के रूपांतरण की समस्या नहीं के बराबर आयेगी।
कानून प्रक्रिया हिंदी भाषा में होने पर मुकदमा फाइल करना, उसे समझना या अपने खिलाफ मुकदमा फाइल होने पर अपना बचाव करना किसी के लिए ज्यादा आसान होगा। मौजूदा स्थिति में वकील पहले मुकदमा अंग्रेजी में समझता है और फिर अपनी समझ के अनुसार उसे अपने मुवक्किल को समझाता है जो अंग्रेजी नहीं जानता। ऐसा मुवक्किल नहीं जानता कि सच क्या है और झूठ क्या है और विवशता में आंख मूंदकर अपने वकील और फिर न्यायाधीशों पर निर्भर रहता है जो अंग्रेजी में पूरी कार्यवाही चलाते हैं।
आज़ादी के बाद हमारे संविधान निर्माताओं के सामने जो अनेक दुरूह समस्याएं आयीं, उनमें हमारी किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा के रुप में अथवा संघ की राजभाषा के रुप में प्रतिष्ठित करने का प्रश्न सर्वाधिक जटिल सिद्ध हुआ। अंत में, अनुच्छेद 343 में शामिल किए गए एक मध्यममार्गी सूत्र के अधीन देवनागरी लिपि वाली हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया। उस समय यह व्यवस्था की गई कि संविधान लागू होने के बाद (26 जनवरी 1950) 15 वर्ष की अवधि तक ही अंग्रेजी का प्रयोग किया जाता रहेगा।
अनुच्छेद 344 में उपबंध है कि राष्ट्रपति पांच वर्ष के बाद और उसके बाद हर दस वर्ष की समाप्ति पर एक आफिसियल लैंग्वेज आयोग का गठन करेगा। इस आयोग का कर्तव्य होगा कि वह इस मामलों में राष्ट्रपति की सिफारिश करे यथा (1) शासकीय प्रयोजनों के लिए हिंदी का अधिकाधिक प्रयोग (2) शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी के प्रयोग पर रोक।
अनुच्छेद 348 के अनुसार- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में- अधिनियमों , विधेयकों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा- अंग्रेजी होगी और न्यायालय की सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी में होंगी। अनुच्छेद 348(2) खंड(1) के उपखंड(क) के अनुसार किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की पूर्व सहमति से उस उच्च न्यायालय की कार्यवाहियों में, जिसका मुख्य स्थान उस राज्य में है, हिंदी भाषा का का प्रयोग प्राधिकृत कर सकेगा।
इसी अधिकार का प्रयोग करते हुए उत्तर प्रदेश में विभागीय कार्यवाहियों की भाषा 26 जनवरी 1968 में हिंदी(देवनागरी लिपि) हो गई। इसी का सहारा लेते हुए प्रबंधन समिति बनाम जिला विद्यालय निरीक्षक, इलाहाबाद की रिट याचिका में यह सवाल उठाया गया कि जब प्रदेश की विभागीय कार्यवाहियों की भाषा हिंदी- देवनागरी हो गई है तो प्रदेश में जब कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका तीनों ही समाहित हैं तो अदालतों की भाषा भी हिंदी ही समझी जाए। (ए.आई.आर 1977 इलाहाबाद 164)
एक विभागीय/अदालती भाषा के दूसरी विभागीय/अदालती का सफर- भले ही यह राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए हो या राष्ट्रीय भावनाओं के प्रस्फुटन के लिए या दोनों के लिए, पर प्राय: गहरी आशंकाओं, भय, खुली या ढ़की शत्रुता से भरा होता है। परम्परावादी महसूस करते हैं कि यह एक दुर्गम खाई पार करने जैसा है। दूसरी तरफ सुधारवादी इस बदलाव के लिए बड़े अधीर और असहिष्णु होते हैं यह सोचकर कि यह उन पर एक विदेशी भाषा का अत्याचार या हमला है। वे एक नई भाषा की सुबह देखने के लिए बेचैन दिखते हैं।
विश्व इतिहास इस भाग्याधीन या अनिश्चित घटना (परिदृश्य) ( एक भाषा को पदस्थ कर दूसरी भाषा लाने की प्रक्रिया) का गवाह रहा है। इंग्लैंड में अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व की लड़ाई पांच शताब्दियों तक चली। इंग्लैंड के सैक्शन हमलावरों ने रोमनवासियों के करीब – करीब सभी चिह्न मिटा दिए। पहले तो उनकी भाषा जीत गई पर कालांतर में उस पर लैटिन का काफी असर रहा। जब फ्रेंच का अस्तित्व आया तो धीरे-धीरे एक नई भाषा फ्रेंच पनपने लगी पर लैटिन ने अपनी प्रभुता बनाए रखी। फ्रेंच की अधिकांश शब्दावली लैटिन थी। अत: स्वभावत: इंग्लैंड की अदालत फ्रेंच तथा लैटिन शब्दों की भरमार हो गई। उस समय इंग्लैंड के कॉमन लॉ (सामान्य विधि) रॉयल कोर्ट द्वारा संचालित होता था और उसकी भाषा मुख्यत: फ्रेंच थी। बाद में फ्रेंच उच्च वर्ग की भाषा नहीं रही पर अदालती भाषा के रुप में चलती रही। कॉमन लॉ कोर्ट्स के लिखित रिकॉर्ड लैटिन में थे पर मौखिक बहसें और दलीलें फ्रेच में होती थीं। चौदहवीं शताब्दी में शासकीय भाषा फ्रेंच से अंग्रेजी हो गई पर कानूनी साहित्य सत्रहवीं शताब्दी तक फ्रेंच में रहा।( इंग्लिश लीगल सिस्टम द्वारा रेड क्लिफ एंड क्रास(तीसरा संस्करण- पृष्ठ- 15)
1362 में इंग्लैंड में एक कानून आया जिसके अनुसार दलीलें फ्रेंच की जगह अंग्रेजी में दी जानी थीं जबकि रिकॉर्ड लैटिन में रखने होते थे. पर फ्रेंच का जाल ऐसा था 1362 में लाया गया कानून लागू नहीं हो पाया। पहला कारण था कि वकील फ्रेंच के अलावा किसी और भाषा में पढने, लिखने और बोलने के आदी नहीं थे तथा दूसरा, सारे टेक्नीकल टर्म्स, पारिषिक शब्द करीब-करीब फ्रेंच में थे। अत: अनेकानेक पुराने तथा कानूनी पारिभाषिक शब्द फ्रेंच से लिए गए थे, कारण उनकी शब्दावली तथा अभिव्यक्ति काफी सटीक और सही होती थी और उनसे कानून की सही मंशा भी जाहिर होती थी। इसे किसी और भाषा में हूबहू परिवर्तित करना लगभग असंभव था। प्रचलित धारणा यह थी कि अंग्रेजी कानून के नियम शायद ही अंग्रेजी में अच्छी तरह अभिव्यक्त किये जा सकते थे। यह भी कहा जाता था कि अंग्रेजी में कोई व्यक्ति झगड़ालू बहसबाज तो हो सकता था पर वकील नहीं। तब तक नहीं जब तक वह कानून की प्रमाणिक किताबें उसी भाषा में न पढे, जिनमें वह लिखी गई थी।
पर इंग्लैंड में भी, आखिरकार, लोगों की आम भाषा अंग्रेजी ने उच्च वर्ग की भाषा को अदालतों में अपदस्थ कर ही दिया। ब्रिटिश लोगों की जिंदगी में रची बसी भाषा अंग्रेजी थी अत: कालांतर में वहां की अदालतों की भाषा भी अंग्रेजी हो गई। कानूनविद् मैटलैंड का विश्वास था कि ‘कानून वह है जहां जीवन और तर्क मिलते हैं। अंतत: फ्रेंच को अपनी जगह अंग्रेजी को बैठाना पड़ा। भले ही वह अंग्रेजी से श्रेष्ठ तथा पारिभाषिक शब्दों में ज्यादा समृद्ध हो। 1731 में ‘वालपोल’ के समय में एक कानून पास हुआ और अदालती भाषा के रुप में खत्म कर दिया गया।
आज जब हम अपनी अदालती भाषा को अंग्रेजी से हिंदी में बदलते की बात करते हैं तो खुद को लगभग उसी स्थिति में पाते हैं जिसमें कभी इंग्लैंड था। जो प्रतिक्रिया उस समय इंग्लैंड के वकीलों और न्यायाधीशों की है। जो लोग अंग्रेजी पढने, बोलने, समझने के आदी हो गए हैं उन्हें अंग्रेजी छोड़ हिंदी की तरफ आना अरुचिकर लगता है। भारत में इस अरुचि का एक कारण और भी है और वह है अंग्रेजी में उन्हें साहबीपन लगता है। वे हिंदी बोलने- समझने वाले को खुद से कमतर मानते हैं। अंग्रेजी उन्हें समाज में खुद-ब-खुद एक अलग स्थान प्राप्त करा देती है जिसे हम मानसिक गुलामी के अलावा और कुछ नहीं कह सकते।
अंग्रेजी भाषा के पक्षधर कहते हैं कि आज अंग्रेजी भारतीय विचार और भाषा के ताने- बाने में कुछ ऐसी घुल मिल गई है कि यह कुछ भारतीयों की संस्कृति का हिस्सा बन गई है। कुछ सांसदों ने सत्तर के दशक में कहा था – अंग्रेजी संविधान की, बहुत सी निचली अदालतों, उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एक शिक्षा की अकेली आधिकारिक भाषा है। दूसरी तरफ हिंदी के समर्थक कहते हैं- संस्कृत एक दिव्य भाषा है और हिंदी उसकी सुंदर बेटी। हिंदी में ही उसके देवताओं, चारणों, लेखकों ने धरती, स्वर्ग के जादू को तलाशा और वासनाओं से उपर उठकर सात्विक सौंदर्य को सराहकर दिव्य जीवन जीना सिखाया। उनके लिए मीरा ने भावविभोर करने वाले भजन लिखे, तुलसीदास व सूरदास ने भक्तिपूर्ण रचनाएं दीं और जयशंकर प्रसाद ने अपनी अमर लेखनी।
पर इस विषय पर भावनात्मक रूप से नहीं बल्कि तार्किक ढंग से, व्यक्तिगत परेशानियों के बारे में न सोचकर तटस्थ भाव से सोचना होगा। सोचना होगा कि न्यायपालिका से आज लोग विमुख क्यों हो रहे हैं ? क्यों इस व्यवस्था से विश्वास कम होते जा रहा है ? क्यों सारी जिंदगी एक मुकदमा लड़ने में खत्म हो जाती है और निर्णय आने पर क्यों लगता न्याय नहीं हुआ ? आज की जिस पीढ़ी के लिए, जो अंग्रेजी भाषा की अभ्यस्त हो गई है पर जिसमें उसे महारत हासिल नहीं है वह भी सोचती है कि अंग्रेजी से हिंदी की यात्रा कठिन है। सच है, पर जब हिंदी कदम- दर-कदम चलते हुए कानून की भाषा के रूप में लॉ कॉलेजों, निचली अदालतों ने न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के आखिरी पायदान पर आ खड़ी होगी तब लोग जानेंगे कि जिस एक पन्ने को पढ़ने-सुनने-समझने में दो दिन लगे थे, हिंदी में होने पर उसमें दो ही मिनट लगे। तब दशकों में आ रहे फैसले महीनों में आएंगे और अपराधी, मुकदमा लड़ने वालों को पता होगा कि कहां अदालती कार्यवाही गलत हो रही थी- जिसे बीच में रोककर उसने सही तथ्य सामने रखे थे औऱ सही तथ्यों के आधार पर जो फैसला आया है वो सही है या गलत। उसे ओझा- गुणी से इलाज की तरह, जन्म कुंडली पढ़कर भविष्य बताने वाले की तरह ही फैसला नहीं सुनना होगा। उसे संतोष होगा कि अदालती कार्यवाही के बीच विदेशी भाषा की दीवार नहीं थी- जहां वह चुपचाप बिना कुछ समझे सबकुछ झेलने को लाचार था।
लोग कह सकते हैं कि भारत में इतनी सारी क्षेत्रीय भाषाओं के होते हुए हिंदी की ही वकालत क्यों ? इसका पहला कारण तो यह है कि अदालती भाषा कभी भी अनेक भाषाओं के साथ नहीं चल सकती। यदि ऐसा हो तो एक ही चीज के कई रुपांतरण होंगे, कई परिभाषाएं, टिप्पणियों तथा विमर्श होंगे। इससे कानून के अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। भाषाओं का अनुवाद है पर एक मुख्य भाषा ही आधिकारिक बनाई जा सती है और उसका अर्थ तथा उसकी व्याख्या अंतिम। इस लिहाज से हिंदी अधिकतम लोगों की भाषा है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। दूसरे, इसे सीखना आसान है। कारण यह संस्कृतनिष्ठ भाषा है।
नि:संदेह किसी देश की अदालती कार्यवाही उसके देशवासियों के लिए होती है तो सिद्धांतत: वह उसी भाषा में होनी चाहिए जिसे लोग समझते है। यदि अदालतों का लोकतांत्रिक स्वरुप से ही सामाजिक न्याय पाया जा सकता है। महान मार्क्सवादी विचारक लेनिन ने भी कहा था; लोकतांत्रिक तरीके अपनाकर ही अदालतें सोवियत सिस्टम के सिद्धांतों को लागू करवा सकती हैं। अनुशासन तथा आत्मानुशासन की इच्छा तभी पूरी की जा सकती है..(लेनिन-कलेक्टेड वर्क्स, वाल्यूम 27 पृष्ठ 218)
महात्मा गांधी ने भी गुलामी की भाषा का, विदेशी भाषा का इन शब्दों में विरोध किया था- मेरे कहने पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मैं अंग्रेजी या इसके महाने साहित्य की निंदा करता हूं। हरिजन के कॉलम्स इस बात के भरपूर प्रमाण हैं कि मैं अंग्रेजी से प्यार करता हूं। पर उस साहित्य की महानता भारतीय राष्ट्र की उतनी सहायता नहीं कर सकती जितनी अंग्रेजी वातावरण और सुंदरता की। हम और हमारे बच्चों को अपनी धरोहर अवश्य बनानी चाहिए। यदि हम दूसरे से इस धरोहर को उधार लेते हैं , हम खुद को गरीब बना लेते हैं। हम कभी भी विदेशी रसद पर फल-फूल नहीं सकते हैं। (लाइफ ड थॉट्स ऑफ महात्मा गांधी। संकलित-कृष्णा कृपलानी-पृष्ठ-154)
26 जनवरी, 1968 से हिंदी उत्तर प्रदेश की विभागीय भाषा है। 7 मार्च, 1970 के बाद उत्तर प्रदेश के गवर्नर ने राष्ट्रपति की सहमति से उच्च न्यायालय में भी हिंदी के प्रयोग की अनुमति दे दी। वहां उच्च न्यायालय तक में हिंदी प्रतिष्ठित है। कानून पुस्तकों का अंग्रेजी से हिंदी में रुपांतरण (ट्रांसलेशन) काफी अच्छा किया गया है और न्यायाधीश व वकील अच्छी, सरल, सौम्य हिंदी में अदालत की कार्यवाही निष्पादित करते हैं। जहां तक ग्रामीण पंचायतों तथा निचली अदालतों का प्रश्न है- वहां आजादी से पहले हीं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग कागजात फाइल करने, गवाही देने तथा वकीलों द्वारा बहस करने में होता है।
1958 में 14वीं लॉ कमीशन ऑफ इंडिया के चेयरमैन एम. सी. सीतलवाड़ ने भारत की अदालतों का दौरा करने के बाद कहा था कि देश की सभी बारों के सदस्यों ने एक सुर से इसका समर्थन किया था कि एक संयुक्त यूनाइटेड भारतीय बार होना चाहिए और एक जैसी कानूनी व्यवस्था सारे भारत में होनी चाहिए। इसी तरह सारी निचली अदालतों के लिए ऑल इंडिया जुडिशियल सर्विस और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए ऑल इंडिया काडर ऑफ हाईकोर्ट जजेज होना चाहिए।
पर यह सब होगा तब जब भारत की अदालतों में एक ही भाषा में कानून की पुस्तकें, कानून का पढाई, परीक्षाएं, शिकायतें, दलीलें, गवाहियों, बहसें तथा निर्णय एवं डिक्री होंगे। यह काम फेज वाइज हो सकता है। जिस भाषा को अधिसंख्य लोग पढ़ते, बोलते, समझते हैं और जो अन्य भाषाओं( संस्कृत) की भी जमीन है, सीखने में अंग्रेजी से आसान है, वही भाषा हमारी अदालतों की भाषा बन सकती है। अदालती कार्यवाही न्यायाधीशों तथा वकीलों द्वारा अवश्य संपन्न होती है पर यह ज्यादातर मामलों में उन आम हिंदीभाषी लोगों के लिए है जो न्याय के लिए मंदिर में न्याय पाने के लिए आते हैं या कि जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं।
यहां वकालत दुरूह हिंदी की, ज़बरदस्ती ट्रांसलेशन की नहीं जा सकती है। निश्चित ही वे शब्द अवश्य ही अदालती भाषा, कानूनी भाषा पिरोये जा सकते हैं जो विदेशी हैं मगर प्रचलित हैं या समझने में आसान है। जो वकील तथा न्यायाधीश अंग्रेजी के ही जानकार हैं, उन्हें भी फेज वाइज हिंदी की ट्रेनिंग देनें की ज़रुरत है।
इस प्रयास से भारत में भी मुवक्किल, आम जनता न्यायपालिका का जरूरी आदर कर पाएगी जिसका उसे अधिकार है। 1958 में दी गई एम.सी. सीतलवाड़ की अनुशंसा को अब कार्यरूप में परिणत करने का समय आ गया है। ऐसा न होने पर संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय, समान अवसर का वादा झूठा ही रहेगा।
(कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ अधिवक्ता हैं और ये उनका निजी विचार है)