यूनिफार्म सिविल कोड या कॉमन सिविल कोड यानि समान नागरिक संहिता का अर्थ है ऐसे कानून जो सभी नागरिकों (स्त्री पुरुष) के लिए समान हों। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 अनुशंसा करता है कि भारत की सारी जनता एक कानून के तले रहे जहां जीवन जीने के नियम एक से हो, कोई भेदभाव न हो, जीवन सरल हो। विवाह, संपत्ति, उत्तराधिकार आदि के नियम एक हों।
व्यक्तिगत धार्मिक अधिकार और सामाजिक संरचना अत्यधिक भेदभाव पर आधारित है और यह सबसे ज्यादा प्रभावित करता है एक स्त्री को। युगों-युगों तक स्त्री को धर्म और समाज के बंधनों में जीना पड़ा है। स्वतंत्रता के 75 वर्षों बाद भी यह परतंत्रता क्यो होनी चाहिए? स्त्रियों ने बार-बार हर जगह साबित किया है कि वे बुद्धि व शारीरिक क्षमता, किसी में भी पुरुषों से कम नहीं हैं।
वास्तव में वह जिस जगह विवाह करती है उसकी जाति, धर्म तक उसका नहीं रहता। जबकि अदालत से फैसले आ चुके हैं कि वह अपना धर्म, अपना सरनेम रख सकती है विवाह के बाद भी। तब भी कहीं-कहीं वह ऐसा नहीं कर पाती।
कई बार सुप्रीम कोर्ट ने धर्म के आधार पर भेदभाव की आलोचना की और केंद्र सरकार को कहा कि वह धर्म और रीति-रिवाज पर आधारित भेदभाव समाप्त करे, पर वोट बैंक पर आधारित सरकारें यह जोखिम न उठा पाई। जोईन दियेनगेह बनाम एसएस चोपड़ा (एआईआर 1985 एससी 934 (AIR 1985 SCC 934) के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा ‘निसंदेह विवाह के सभी मामलों में, सभी धर्मों में एक कानून हो।‘ कम से कम शादी एवं तलाक के नियम तो हर एक धर्म में समान हों। इससे, आज जैसे एक बंटा हुआ समाज है उसकी स्थिति तो बेहतर होगी। इसी प्रकार मो. अहमद खान एवं शाहबानो एआईआर 1985 एससी 556 (AIR 1985 SCC 556) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, एक मुस्लिम पति का यह कर्तव्य है कि वह अपनी पत्नी को तलाक के बाद, इद्दत के बाद भी भरण-पोषण राशि दे। पर राजीव गांधी की सरकार ने इस फैसले को निरस्त कर दिया कानून बनाकर।
इसी प्रकार सरला मुद्गल के मामले में एआईआर 1985 एससी 945 (AIR 1985 SCC 945) में हिंदू पति ने हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपना लिया और हिंदू पत्नी को छोड़ दिया। पत्नी का धर्म अभी भी हिंदू था। अदालत ने कहा, ऐसे में एक समान नागरिक संहिता होनी ही चाहिए। अलग-अलग कानूनों की चक्की में स्त्री क्यों पिसे। गलती पुरुष करे और भुगते स्त्री।
इसी प्रकार विवाह करने की, कितने विवाह हों, हो गया तो तलाक किसकी मर्जी से हो, कितना भरण-पोषण मिले, संपत्ति में कितना अधिकार हो, बेटी को पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिले या नहीं सभी सवालों के जवाब कानून को देने हैं, अंतत: समाज एवं राज्य को भी देने हैं। धारा 44 को स्वतंत्रता के दस सालों के अंदर ही लागू होना था। कोर्ट ने भी कहा, व्यक्तिगत नियम और धर्म के साथ, एक सभ्य समाज में, कानून का कोई संबंध नहीं है। एक के बाद एक आई सरकारें अपनी सुविधानुसार वोट बैंक पर ध्यान रखते हुए इस गंभीर विषय को नकारती रहीं और भारत की आधी जनता इस भेदभाव की चक्की में पिसती रही। सवाल है बालिका एक नन्हीं जान, क्यों भेदभाव की शिकार हो सिर्फ अपने लिंग भेद के कारण। इस पर कानून व समाज क्यों चुप रहे।
अनुच्छेद 44 ही बच्चियों के मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की बात करता है, जिससे भी काफी बच्चियों को दूर रखा जाता है। कम उम्र में विवाह जैसे 10-12 वर्ष की बच्चियों का विवाह किसी भी धर्म, समाज में उनके शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक विकास को ही खत्म कर देता है। इसलिए विवाह की उम्र भी उनके लिए समान हो, कम से कम 21 वर्ष।
लड़कियों को आर्थिक आजादी की भी जरूरत है। उन्हें पैतृक संपत्ति मिले, समान शिक्षा, समान आयु में विवाह, बच्चे कितने हों, उनका लालन-पालन कैसे हो, वे विवाह पश्चात या बिना विवाह किये नौकरी करने, अपना व्यवसाय करने का समान अधिकार पाएं। बिना समान अधिकार के जो कि समान नागरिक संहिता से ही प्राप्त हो सकता है, उनका समुचित विकास जब तक नहीं होता, तब तक वे एक संपूर्ण, संतुष्ट व्यक्ति, नागरिक नहीं बन सकती।
विश्व ने देखा है कि अवसर देने पर एक स्त्री किसी देश की प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर, ज्यूडिसियरी में चीफ जस्टिस, पुलिस अधिकारी, बैंक और बड़ी कंपनियों की मालकिन कुछ भी हो सकती है, उन्होंने यह सब प्राप्त किया है। वे आर्मी, नेवी, एयरफोर्स सब में हैं। तब सिर्फ ‘समान नागरिक संहिता” के अभाव में वे परिवार और धर्म की गुलाम क्यों बनाई जाए। कितने ही राष्ट्रों, यहां तक कि कई मुस्लिम राष्ट्रों में समान नागरिक संहिता है तो यहां क्यों नहीं।
धर्म और व्यक्तिगत नियम, विचार, कानून के अंतर्गत भेदभाव का शिकार नारी ही है। जैसे हिंदू धर्म भी व्यवहार में, मुस्लिम धर्म नियम, कानून, धर्म में। ईसाई धर्म, पारसी धर्म सभी कहीं न कहीं विभिन्न धर्म और नियम के आधार पर, मनमानी के आधार पर स्त्रियों को पूरी तरह से अपना विकास करने नहीं देते। समाज व धर्म का विरोध होता रहेगा, तो क्या स्वतंत्रता के 75 वर्ष बीतने पर भी सरकारें वोट बैंक के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहेंगी या मौन बनकर देश की आधी आबादी घुट-घुटकर जीने को बाध्य होंगी।
आज शहरों की स्त्री खासकर हिंदू, कुछ हद तक मुस्लिम भी, बराबरी के कानून को मन से स्वीकार करती हैं पर एक सशक्त कानून के अभाव में ग्रामीण स्त्रियां भी कम से कम 500 साल पुराने जंगलराज को झेल रही हैं। एक जैसा कानून आने पर उनमें भी जागरूकता बढ़ेगी और वे यह सोच अपने मन से बाहर निकाल सकेंगी। वे इस क्रूर दुनिया का हिस्सा नहीं हैं बल्कि बराबर अधिकार और सम्मान वाली हैं जैसे कि एक पुरुष।
गुजरात एवं उत्तराखंड की राज्य सरकारों ने कमेटी बनाई थी अपने राज्यों में समान सिविल कोड बनाने के लिए। इन्हें असंवैधानिक बताने के लिए एक पीआईएल (Public Interest Litigation)को सुप्रीम कोर्ट ने 9 जनवरी 2023 को निरस्त कर दिया।
चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ एवं जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा ने कहा- ”यह संविधान सम्मत है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 162 के अंतर्गत यूसीसी, राज्य और केंद्र, दोनों ही सरकारे लागू कर सकती है। राज्यों को अनुच्छेद 162 के अंतर्गत प्रशासनिक अधिकार है कि वे यूसीसी लागू करें।”
यूसीसी मुख्यतया- विवाह, तलाक, छोटे बच्चों,नाबालिग, गोद लेने, वसीयत बनाने, बिना वसीयत उत्तराधिकार (निर्वसीयता ), उत्तराधिकार, ।संयुक्त परिवार तथा बंटवारा के लिए- सभी धर्मों के लिए एक कानून लाने के लिए लागू किया जाता है।
एक और अहम बात है। मुस्लिम लड़की की शादी की उम्र अभी 15 वर्ष है।उसमें बदलाव लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक रिट पेटिशन पेंडिंग है।चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की बेंच ने हाल में हरियाणा सरकार को नोटिस भी जारी किया है।
जिस दिन महिलाएं अपनी सशक्त उपस्थिति से देश की संसद, विधानसभा, पंचायत, स्कूल,कॉलेज,विश्वविद्यालय,व्यापार में बराबरी से दर्ज कराएगी तो देश अत्यंत ही सशक्त संतुलित और अहिंसक होगा।
सामाजिक तौर पर शिक्षित, बालिग स्त्रियां आर्थिक रूप से मजबूत, बच्चों के पालन में संतुलित, जागृत होगी। कहा भी जाता है कि एक शिक्षित माँ कई बच्चों की एक मजबूत आधारशिला होती है जिसके बच्चे परिपक्व और समझदार होते हैं। देश राजनीतिक परिवेश और घर समाज की समुचित उन्नति के लिए समान नागरिक संहिता अत्यंत ही आवश्यक है।
(लेखिका सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील हैं और ये उनके निजी विचार हैं )